Monday 5 December 2016

भारत और पाकिस्‍तान का बंटवारा

भारत और पाकिस्‍तान का बंटवारा











द्वितीय विश्‍व युद्ध समाप्‍त होने पर ब्रिटिश प्रधान मंत्री क्‍लेमेंट रिचर्ड एटली के नेतृत्‍व में लेबर पार्टी शासन में आई। लेबर पार्टी आजादी के लिए भारतीय नागरिकों के प्रति सहानुभूति की भावना रखती थी। मार्च 1946 में एक केबिनैट कमीशन भारत भेजा गया, जिसके बाद भारतीय राजनैतिक परिदृश्‍य का सावधानीपूर्वक अध्‍ययन किया गया, एक अंतरिम सरकार के निर्माण का प्रस्‍ताव दिया गया और एक प्रां‍तीय विधान द्वारा निर्वाचित सदस्‍यों और भारतीय राज्‍यों के मनोनीत व्‍यक्तियों को लेकर संघटक सभा का गठन किया गया। जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्‍व ने एक अंतरिम सरकार का निर्माण किया गया। जबकि मुस्लिम लीग ने संघटक सभा के विचार विमर्श में शामिल होने से मना कर दिया और पाकिस्‍तान के लिए एक अलग राज्‍य बनाने में दबाव डाला। लॉर्ड माउंटबेटन, भारत के वाइसराय ने भारत और पाकिस्‍तान के रूप में भारत के विभाजन की एक योजना प्रस्‍तुत की और तब भारतीय नेताओं के सामने इस विभाजन को स्‍वीकार करने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं था, क्‍योंकि मुस्लिम लीग अपनी बात पर अड़ी हुई थी।

इस प्रकार 14 अगस्‍त 1947 की मध्‍य रात्रि को भारत आजाद हुआ (तब से हर वर्ष भारत में 15 अगस्‍त को स्‍वतंत्रता दिवस मनाया जाता है)। जवाहर लाल नेहरू स्‍वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने और 1964 तक उनका कार्यकाल जारी रहा। राष्‍ट्र की भावनाओं को स्‍वर देते हुए प्रधानमंत्री, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा,
कई वर्ष पहले हमने नियति के साथ निश्चित किया और अब वह समय आ गया है जब हम अपनी शपथ दोबारा लेंगे, समग्रता से नहीं या पूर्ण रूप से नहीं बल्कि अत्‍यंत भरपूर रूप से। मध्‍य रात्रि के घंटे की चोट पर जब दुनिया सो रही होगी हिन्‍दुस्‍तान जीवन और आजादी के लिए जाग उठेगा। एक ऐसा क्षण जो इतिहास में दुर्लभ ही आता है, जब हम अपने पुराने कवच से नए जगत में कदम रखेंगे, जब एक युग की समाप्ति होगी और जब राष्‍ट्र की आत्‍मा लंबे समय तक दमित रहने के बाद अपनी आवाज पा सकेगा। हम आज दुर्भाग्‍य का एक युग समाप्‍त कर रहे हैं और भारत अपनी दोबारा खोज आरंभ कर रहा है।












पहले, संघटक सभा का गठन भारतीय संविधान को रूपरेखा देना के लिए जुलाई 1946 में किया गया था और डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद को इसका राष्‍ट्रपति निर्वाचित किया गया था। भारतीय संविधान, जिसे 26 नवम्‍बर 1949 को संघटक सभा द्वारा अपनाया गया था। 26 जनवरी 1950 को यह संविधान प्रभावी हुआ और डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद को भारत का प्रथम राष्‍ट्रपति चुना गया।

नागरिक अवज्ञा आंदोलन



नागरिक अवज्ञा आंदोलन












महात्‍मा गांधी ने नागरिक अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्‍व किया, जिसकी शुरूआत दिसंबर 1929 में कांग्रेस के सत्र के दौरान की गई थी। इस अभियान का लक्ष्‍य ब्रिटिश सरकार के आदेशों की संपूर्ण अवज्ञा करना था। इस आंदोलन के दौरान यह निर्णय लिया गया कि भारत 26 जनवरी को पूरे देश में स्‍वतंत्रता दिवस मनाएगा। अत: 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में बैठकें आयोजित की गई और कांग्रेस ने तिरंगा लहराया। ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन को दबाने की कोशिश की तथा इसके लिए लोगों को निर्दयतापूर्वक गोलियों से भून दिया गया, हजारों लोगों को मार डाला गया। गांधी जी और जवाहर लाल नेहरू के साथ कई हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया। परन्‍तु यह आंदोलन देश के चारों कोनों में फैल चुका था। इसके बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा गोलमेज सम्‍मेलन आयोजित किया गया और गांधी जी ने द्वितीय गोलमेज सम्‍मेलन में लंदन में भाग लिया। परन्‍तु इस सम्‍मेलन का कोई नतीजा नहीं निकला और नागरिक अवज्ञा आंदोलन पुन: जीवित हो गया।

इस समय, विदेशी निरंकुश शासन के खिलाफ प्रदर्शन स्वरूप दिल्ली में सेंट्रल असेम्बली हॉल (अब लोकसभा) में बम फेंकने के आरोप में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को गिरफ्तार किया गया था। 23 मार्च 1931 को उन्हें फांसी की सजा दे दी गई।

जलियांवाला बाग नरसंहार

जलियांवाला बाग नरसंहार

दिनांक 13 अप्रेल 1919 को जलियांवाला बाग में हुआ नरसंहार भारत में ब्रिटिश शासन का एक अति घृणित अमानवीय कार्य था। पंजाब के लोग बैसाखी के शुभ दिन जलियांवाला बाग, जो स्‍वर्ण मंदिर के पास है, ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों के खिलाफ अपना शांतिपूर्ण विरोध प्र‍दर्शित करने के लिए एकत्रित हुए। अचानक जनरल डायर अपने सशस्‍त्र पुलिस बल के साथ आया और निर्दोष निहत्‍थे लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई, तथा महिलाओं और बच्‍चों समेंत सैंकड़ों लोगों को मार दिया। इस बर्बर कार्य का बदला लेने के लिए बाद में ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग के कसाई जनरल डायर को मार डाला।

प्रथम विश्‍व युद्ध (1914-1918) के बाद मोहनदास करमचन्‍द गांधी कांग्रेस के निर्विवाद नेता बने। इस संघर्ष के दौरान महात्‍मा गांधी ने अहिंसात्‍मक आंदोलन की नई तरकीब विकसित की, जिसे उसने "सत्‍याग्रह" कहा, जिसका ढीला-ढाला अनुवाद "नैतिक शासन" है। गांधी जो स्‍वयं एक श्रद्धावान हिंदु थे, सहिष्‍णुता, सभी धर्मों में भाई में भाईचारा, अहिंसा व सादा जीवन अपनाने के समर्थक थे। इसके साथ, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्‍द्र बोस जैसे नए नेता भी सामने आए व राष्‍ट्रीय आंदोलन के लिए संपूर्ण स्‍वतंत्रता का लक्ष्‍य अपनाने की वकालत की।

भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस (आई एन सी) का गठन


भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस (आई एन सी) का गठन

भारतीय राष्‍ट्रीय आंदोलन की नींव, सुरेन्‍द्र नाथ बनर्जी द्वारा 1876 में कलकत्‍ता में भारत एसोसिएशन के गठन के साथ रखी गई। एसोसिएशन का उद्देश्‍य शिक्षित मध्‍यम वर्ग का प्रतिनिधित्‍व करना, भारतीय समाज को संगठित कार्यवाही के लिए प्रेरित करना था। एक प्रकार से भारतीय एसोसिएशन, भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस, जिसकी स्‍थापना सेवा निवृत्‍त ब्रिटिश अधिकारी ए.ओ.ह्यूम की सहायता की गई थी, की पूर्वगामी थी। 1895 में भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस (आई एन सी) के जन्‍म से नव शिक्षित मध्‍यम वर्ग के राजनीति में आने के लक्ष्‍ण दिखाई देने लगे तथा इससे भारतीय राजनीति का स्‍वरूप ही बदल गया। भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस का पहला अधिवेशन दिसम्‍बर 1885 में बम्‍बई में वोमेश चन्‍द्र बनर्जी की अध्‍यक्षता में हुआ तथा इसमें अन्‍यों के साथ-साथ भाग लिया।













सदी के बदलने के समय, बाल गंगाधर तिलक और अरविंद घोष जैसे नेताओं द्वारा चलाए गए "स्‍वदेशी आंदोलन" के मार्फत् स्‍वतंत्रता आंदोलन सामान्‍य अशिक्षित लोगों तक पहंचा। 1906 में कलकत्‍ता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन जिसकी अध्‍यक्षता दादा भाई नौरोजी ने की थी, ने "स्‍वराज्‍य" प्राप्‍त करने का नारा दिया अर्थात् एक प्रकार का ऐसा स्‍वशासन जा ब्रिटिश नियंत्रण में चुने हुए व्‍यक्तियों द्वारा चलाया जाने वाला शासन हो, जैसा कनाडा व आस्‍ट्रेलिया में, जो ब्रिटिश साम्राज्‍य के अधीन थे, में प्रचलित था।

बीच, 1909 में ब्रिटिश सरकार ने, भारत सरकार के ढांचे में कुछ सुधार लाने की घोषणा की, जिसे मोरले-मिन्‍टो सुधारों के नाम से जाना जाता है। परन्‍तु इन सुधारों से निराशा ही प्राप्‍त हुई क्‍योंकि इसमें प्रतिनिधि सरकार की स्‍थापना की दिशा में बढ़ने का कोई प्रयास दिखाई नहीं दिया। मुसलमानों को विशेष प्रतिनिधित्‍व दिए जाने के प्रावधान को हिंदु-मुसलमान एकता जिस पर राष्‍ट्रीय आंदोलन टिका हुआ था, के लिए खतरे के रूप में देखा गया अत: मुसलमानों के नेता मोहम्‍मद अली जिन्‍ना समेत सभी नेताओं द्वारा इन सुधारों का ज़ोरदार विरोध किया गया। इसके बाद सम्राट जार्ज पंचम ने दिल्‍ली में दो घोषणाएं की, प्रथम बंगाल विभाजन जो 1905 में किया गया था को निरस्‍त किया गया, द्वितीय, यह घोषणा की गई कि भारत की राजधानी कलकत्‍ता से हटाकर दिल्‍ली लाई जाएगी।

वर्ष 1909 में घोषित सुधारों से असंतुष्ट होकर स्वराज आन्दोलन के संघर्ष को और तेज कर दिया गया। जहां एक ओर बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और विपिन चन्द्र पाल जैसे महान नेताओं ने ब्रिटिश राज के खिलाफ एक तरह से लगभग युद्ध ही शुरू कर दिया तो दूसरी ओर क्रांतिकारियों ने हिंसात्मक गतिविधियां शुरू कर दीं। पूरे देश में ही एक प्रकार की अस्थिरता की लहर चल पड़ी। लोगों के बीच पहले से ही असंतोष था, इसे और बढ़ाते हुए 1919 में रॉलेट एक्ट अधिनियम पारित किया गया, जिससे सरकार ट्रायल के बिना लोगों को जेल में रख सकती थी। इससे लोगों में स्वदेश की भावना फैली और बड़े-बड़े प्रदर्शन तथा धरने दिए जाने लगे, जिन्हें सरकार ने जलियांवाला बाग नर संहार जैसी अत्याचारी गतिविधियों से दमित करने का प्रयास किया, जहां हजारों बेगुनाह शांति प्रिय व्यक्तियों को जनरल डायर के आदेश पर गोलियों से भून दिया गया।

ईस्‍ट इन्डिया कम्‍पनी का अंत

ईस्‍ट इन्डिया कम्‍पनी का अंत










1857 के विद्रोह की असफलता के परिणामस्‍वरूप, भारत में ईस्‍ट इन्डिया कंपनी के शासन का अंत भी दिखाई देने लगा तथा भारत के प्रति ब्रिटिश शासन की नीतियों में महत्‍वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिसके अंतर्गत भारतीय राजाओं, सरदारों और जमींदारों को अपनी ओर मिलाकर ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ करने के प्रयास किए गए। रानी विक्‍टोरिया के दिनांक 1 नवम्‍बर 1858 की घोषणा के अनुसार यह उद्घोषित किया गया कि इसके बाद भारत का शासन ब्रिटिश राजा के द्वारा व उनके वास्‍ते सेक्रेटरी आफ स्‍टेट द्वारा चलाया जाएगा। गवर्नर जनरल को वायसराय की पदवी दी गई, जिसका अर्थ था कि व‍ह राजा का प्रतिनिधि था। रानी विक्‍टोरिया जिसका अर्थ था कि वह सम्राज्ञी की पदवी धारण करें और इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राज्‍य के आंतरिक मामलों में दखल करने की असीमित शक्तियां धारण कर लीं। संक्षेप में भारतीय राज्‍य सहित भारत पर ब्रिटिश सर्वोच्‍चता सुदृढ़ रूप से स्‍थापित कर दी गई। अंग्रेजों ने वफादार राजाओं, जमींदारों और स्‍थानीय सरदारों को अपनी सहायता दी जबकि, शिक्षित लोगों व आम जन समूह (जनता) की अनदेखी की। उन्‍होंने अन्‍य स्‍वार्थियों जैसे ब्रिटिश व्‍यापारियों, उद्योगपतियों, बागान मालिकों और सिविल सेवा के कार्मिकों (सर्वेन्‍ट्स) को बढ़ावा दिया। इस प्रकार भारत के लोगों को शासन चलाने अथवा नीतियां बनाने में कोई अधिकार नहीं था। परिणाम स्‍वरूप ब्रिटिश शासन से लोगों को घृणा बढ़ती गई, जिसने भारतीय राष्‍ट्रीय आंदोलन को जन्‍म दिया।

स्‍वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्‍व राजा राम मोहन राय, बंकिम चन्‍द्र और ईश्‍वरचन्‍द्र विद्यासागर जैसे सुधारवादियों के हाथों में चला गया। इस दौरान राष्‍ट्रीय एकता की मनोवैज्ञानिक संकल्‍पना भी, एक सामान्‍य विदेशी अत्‍याचारी/तानाशाह के विरूद्ध संघर्ष की आग को धीरे-धीरे आगे बढ़ाती रही।

राजा राम मोहन राय (1772-1833) ने समाज को उसकी बुरी प्रथाओं से मुक्‍त करने के उद्देश्‍य से 1928 में ब्र‍ह्म समाज की स्‍थापना की। उन्‍होंने सती, बाल वि‍वाह व परदा पद्धति जैसी बुरी प्रथाओं को समाप्‍त करने के लिए काम किया, विधवा विवाह स्‍त्री शिक्षा और भारत में अंग्रेजी पद्धति से शिक्षा दिए जाने का समर्थन किया। इन्‍हीं प्रयासों के कारण ब्रिटिश शासन द्वारा सती होने को एक कानूनी अपराध घोषित किया गया।












स्‍वामी विवेकानन्‍द (1863-1902) जो रामकृष्‍ण परमहंस के शिष्‍य/अनुयायी थे, ने 1897 में वेलूर में रामकृष्‍ण मिशन की स्‍थापना की। उन्‍होंने वेदांतिक दर्शन की सर्वोच्‍चता का समर्थन किया। 1893 में शिकागो (यू एस ए) की विश्‍व धर्म कांफ्रेस में उनके भाषण ने, पहली बार पश्चिमी लोगों को, हिंदू धर्म की महानता को समझने पर मज़बूर किया।

Saturday 3 December 2016

भारतीय स्‍वतंत्रता संग्राम (1857-1947)

इतिहास : भारतीय स्‍वतंत्रता संग्राम (1857-1947)

पुराने समय में जब पूरी दुनिया के लोग भारत आने के लिए उत्‍सुक रहा करते थे। यहां आर्य वर्ग के लोग मध्‍य यूरोप से आए और भारत में ही बस गए। उनके बाद मुगल आए और वे भी भारत में स्‍थायी रूप से बस गए। चंगेज़खान, एक मंगोलियाई था जिसने भारत पर कई बार आक्रमण किया और लूट पाट की। अलेक्‍ज़ेडर महान भी भारत पर विजय पाने के लिए आया किन्‍तु पोरस के साथ युद्ध में पराजित होकर वापस चला गया। हेन सांग नामक एक चीनी नागरिक यहां ज्ञान की तलाश में आया और उसने नालंदा तथा तक्षशिला विश्‍वविद्यालयों में भ्रमण किया जो प्राचीन भारतीय विश्‍वविद्यालय हैं। कोलम्‍बस भारत आना चाहता था किन्‍तु उसने अमेरिका के तटों पर उतरना पसंद किया। पुर्तगाल से वास्‍को डिगामा व्‍यापार करने अपने देश की वस्‍तुएं लेकर यहां आया जो भारतीय मसाले ले जाना चाहता था। यहां फ्रांसीसी लोग भी आए और भारत में अपनी कॉलोनियां बनाई।
अंत में ब्रिटिश लोग आए और उन्‍होंने लगभग 200 साल तक भारत पर शासन किया। वर्ष 1757 ने प्‍लासी के युद्ध के बाद ब्रिटिश जनों ने भारत पर राजनैतिक अधिकार प्राप्‍त कर लिया। और उनका प्रभुत्‍व लॉर्ड डलहौजी के कार्य काल में यहां स्‍थापित हो गया जो 1848 में गवर्नर जनरल बने। उन्‍होंने पंजाब, पेशावर और भारत के उत्तर पश्चिम से पठान जनजातियों को संयुक्‍त किया। और वर्ष 1856 तक ब्रिटिश अधिकार और उनके प्राधिकारी यहां पूरी मजबूती से स्‍थापित हो गए। जबकि ब्रिटिश साम्राज्‍य में 19वीं शताब्‍दी के मध्‍य में अपनी नई ऊंचाइयां हासिल की, असंतुष्‍ट स्‍थानीय शासकों, मजदूरों, बुद्धिजीवियों तथा सामान्‍य नागरिकों ने सैनिकों की तरह आवाज़ उठाई जो उन विभिन्‍न राज्‍यों की सेनाओं के समाप्‍त हो जाने से बेरोजगार हो गए थे, जिन्हें ब्रिटिश जनों ने संयुक्‍त किया था और यह असंतोष बढ़ता गया। जल्‍दी ही यह एक बगावत के रूप में फूटा जिसने 1857 के विद्रोह का आकार‍ लिया।

1857 में भारतीय विद्रोह

भारत पर विजय, जिसे प्‍लासी के संग्राम (1757) से आरंभ हुआ माना जा सकता है, व्‍यावहारिक रूप से 1856 में डलहौजी के कार्यकाल का अंत था। किसी भी अर्थ में यह सुचारु रूप से चलने वाला मामला नहीं था, क्‍योंकि लोगों के बढ़ते असंतोष से इस अवधि के दौरान अनेक स्‍थानीय प्रांतियां होती रहीं। यद्यपि 1857 का विद्रोह, जो मेरठ में सैन्‍य कर्मियों की बगावत से शुरू हुआ, जल्‍दी ही आगे फैल गया और इससे ब्रिटिश शासन को एक गंभीर चुनौती मिली। जबकि ब्रिटिश शासन इसे एक वर्ष के अंदर ही दबाने में सफल रहा, यह निश्चित रूप से एक ऐसी लोकप्रिय क्रांति थी जिसमें भारतीय शासक, जनसमूह और नागरिक सेना शामिल थी, जिसने इतने उत्‍साह से इसमें भाग लिया कि इसे भारतीय स्‍वतंत्रता का पहला संग्राम कहा जा सकता है।

ब्रिटिश द्वारा जमीनदारी प्रथा को शुरू करना, जिसमें मजदूरों को भारी करों के दबाव से कुचल डाला गया था, इससे जमीन के मालिकों का एक नया वर्ग बना। दस्‍तकारों को ब्रिटिश निर्मित वस्‍तुओं के आगमन से नष्‍ट कर दिया गया। धर्म और जाति प्रथा, जिसने पारम्‍परिक भारतीय समाज की सुदृढ़ नींव बनाई थी अब ब्रिटिश प्रशासन के कारण खतरे में थी। भारतीय सैनिक और साथ ही प्रशासन में कार्यरत नागरिक वरिष्‍ठ पदों पर पदोन्‍नत नहीं किए गए, क्‍योंकि ये यूरोपियन लोगों के लिए आरक्षित थे। इस प्रकार चारों दिशाओं में ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष और बगावत की भावना फैल गई, जो मेरठ में सिपाहियों के द्वारा किए गए इस बगावत के स्‍वर में सुनाई दी जब उन्‍हें ऐसी कारतूस मुंह से खोलने के लिए कहा गया जिन पर गाय और सुअर की चर्बी लगी हुई थी, इससे उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुईं। हिन्‍दु तथा मुस्लिम दोनों ही सैनिकों ने इन कारतूसों का उपयोग करने से मना कर दिया, जिन्‍हें 9 मई 1857 को अपने साथी सैनिकों द्वारा क्रांति करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया।

बगावती सेना ने जल्‍दी ही दिल्‍ली पर कब्‍जा कर लिया और यह क्रांति एक बड़े क्षेत्र में फैल गई और देश के लगभग सभी भागों में इसे हाथों हाथ लिया गया। इसमें सबसे भयानक युद्ध दिल्‍ली, अवध, रोहिलखण्‍ड, बुंदेल खण्‍ड, इलाहबाद, आगरा, मेरठ और पश्चिमी बिहार में लड़ा गया। विद्रोही सेनाओं में बिहार में कंवर सिंह के तथा दिल्‍ली में बख्‍तखान के नेतृत्‍व में ब्रिटिश शासन को एक करारी चोट दी। कानपुर में नाना साहेब ने पेशावर के रूप में उद्घघोषणा की और तात्‍या टोपे ने उनकी सेनाओं का नेतृत्‍व किया जो एक निर्भीक नेता थे। झांसी की रानी लक्ष्‍मी बाई ने ब्रिटिश के साथ एक शानदार युद्ध लड़ा और अपनी सेनाओं का नेतृत्‍व किया। भारत के हिन्‍दु, मुस्लिक, सिक्‍ख और अन्‍य सभी वीर पुत्र कंधे से कंधा मिलाकर लड़े और ब्रिटिश राज को उखाड़ने का संकल्‍प लिया। इस क्रांति को ब्रिटिश राज द्वारा एक वर्ष के अंदर नियंत्रित कर लिया गया जो 10 मई 1857 को मेरठ में शुरू हुई और 20 जून 1858 को ग्‍वालियर में समाप्‍त हुई।

Friday 2 December 2016

स्वदेशी आन्दोलन

स्वदेशी आन्दोलन भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण आन्दोलन, सफल रणनीति व दर्शन था। स्वदेशी का अर्थ है - 'अपने देश का'। इस रणनीति के लक्ष्य ब्रिटेन में बने माल का बहिष्कार करना तथा भारत में बने माल का अधिकाधिक प्रयोग करके साम्राज्यवादी ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना व भारत के लोगों के लिये रोजगार सृजन करना था। यह ब्रितानी शासन को उखाड़ फेंकने और भारत की समग्र आर्थिक व्यवस्था के विकास के लिए अपनाया गया साधन था।


वर्ष 1905 के बंग-भंग विरोधी जनजागरण से स्वदेशी आन्दोलन को बहुत बल मिला। यह 1911 तक चला और गान्धीजी के भारत में पदार्पण के पूर्व सभी सफल अन्दोलनों में से एक था। अरविन्द घोषरवीन्द्रनाथ ठाकुरवीर सावरकर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय स्वदेशी आन्दोलन के मुख्य उद्घोषक थे।[1] आगे चलकर यही स्वदेशी आन्दोलन महात्मा गांधी के स्वतन्त्रता आन्दोलन का भी केन्द्र-बिन्दु बन गया। उन्होने इसे "स्वराज की आत्मा" कहा।

1857



1857 का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्रामसिपाही विद्रोह और भारतीयविद्रोह के नाम से भी जाना जाता है ब्रितानी शासन के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह था। यह विद्रोह दो साल तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह की शुरुआत छावनीं क्षेत्रों में छोटी झड्पों तथा आगजनी से हुई परन्तु जनवरी माह तक इसने एक बडा रुप ले लिय़ा। इस विद्रोह के अन्त में ईस्ट इंडिया कम्पनी का भारत में शासन खत्म हो गया और ब्रितानी सरकार का प्रत्यक्ष शासन प्रारम्भ हो गया जो कि अगले ९० सालों तक चला।
 
 
भारत में ब्रितानी विस्तार का इतिहास
 
ईस्ट ईण्डिया कंपनी ने राबर्ट क्लाईव के नेतृत्व में सन 1757 में प्लासी का युद्ध जीता। युद्ध के बाद हुई संधि में अन्ग्रेजों को बंगाल में कर मुक्त व्यापार का अधिकार मिल गया। सन 1764 में बक्सर का युद्ध जीतने के बाद अन्ग्रेजों का बंगाल पर पूरी तरह से अधिकार हो गया। इन दो युद्धों में हुई जीत ने अन्ग्रेजों की ताकत को बहुत बडा दिया, और उनकी सैन्य क्षमता की को परम्परागत भारतीय सैन्य क्षमता से श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया। कंपनी ने इसके बाद सारे भारत पर अपना प्रभाव फ़ैलाना शुरू कर दिया।
सन 1845 में ईस्ट ईण्डिया कंपनी ने सिन्ध क्षेत्र पर रक्तरंजित लडाई के बाद अधिकार कर लिया। सन 1839 में महाराजा रंजीत सिंह की मृत्यु के बाद कमजोर हुए पंजाब पर अन्ग्रेजों ने अपना हाथ बडाया और सन 1848 में दूसरा अन्ग्रेज – सिख युद्ध हुआ। सन 1849 में कंपनी का पंजाब पर भी अधिकार हो गया। सन 1853 में आखरी मराठा पेशवा बाजी राव के दत्तक पुत्र नाना साहब की पदवी छीनली गयी और उनका सालाना खर्चा बंद कर दिया गया।
सन 1854 में बरार और सन 1856 में अवध को कंपनी के राज्य में मिला लिया गया।
विद्रोह के कारण
सन 1857 के विद्रोह के विभिन्न राजनैतिक,आर्थिक,धार्मिक,सैनिक तथा सामाजिक कारण बताये जाते हैं।
वैचारिक मतभेद
कई ईतिहासकारों का मानना है कि उस समय के जनमानस में यह धारणा थी कि अन्ग्रेज उन्हें जबर्दस्ती या धोखे से ईसाई बनाना चाहते थे। यह पूरी तरह से गलत भी नहीं था, कुछ कंपनी अधिकारी धर्म परिवर्तन के कार्य में जुटे थे। हालांकि कंपनी ने धर्म परिवर्तन को मंजूरी कभी नहीं दी। कंपनी इस बात से अवगत थी कि धर्म, पारम्परिक भारतीय समाज में विद्रोह का एक कारण बन सकता है।
डाक्ट्रिन औफ़ लैप्स की नीति के अन्तर्गत अनेक राज्य जैसे झाँसी,अवध,सतारा,नागपुर और संबलपुर को अन्ग्रेजी राज्य में मिला लिया गया और इनके उत्तराधिकारी राजा से अन्ग्रेजी राज्य से पेंशन पाने वाले कर्मचारी बन गये। शाही घराने, जमींदार और सेनाओं ने अपनेआप को बेरोजगार और अधिकारहीन पाया । ये लोग अन्ग्रेजों के हाथों अपनी शरमिन्दगी और हार का बदला लेने के लिये तैयार थे। लौर्ड डलहौजी के शासन के आठ सालों में दस लाख वर्गमील क्षेत्र को कंपनी के कब्जे मे ले लिया गया। इसके अतिरिक्त ईस्ट ईण्डिया कंपनी की बंगाल सेना में बहुत से सिपाही अवध से भर्ती होते थे, वे अवध में होने वाली घटनाओं से अछूते नही रह सके। नागपुर के शाही घराने के आभूषणों की कलकत्ता में बोली लगायी गयी इस घटना को शाही परिवार के प्रति अनादर के रुप में देखा गया।
भारतीय कंपनी के सख्त शासन से भी नाराज थे जो कि तेजी से फ़ैल रहा था और पश्चिमी सभ्य्ता का प्रसार कर रहा था। अन्ग्रेजों ने हिन्दू और मुसल्मानों के उस समय माने जाने वाले बहुत से रिवाजो को गैरकानूनी घोषित कर दिया जो कि अन्ग्रेजों मे असमाजिक माने जाते थे। इसमें सती प्रथा पर रोक लगाना शामिल था। यहां ध्यान देने योग्य बात यह् है कि सिखों ने यह बहुत पहले ही बंद कर दिया था और बंगाल के प्रसिद्ध समाज सुधारक राजा राममोहन राय इस प्रथा को बंद करने के पक्ष में प्रचार कर् रहे थे। ईन कानूनों ने समाज के कुछ पक्षों मुख्य्त् बंगाल मे क्रोध उत्पन्न कर दिया। अन्ग्रेजों ने बाल विवाह प्रथा को समाप्त किया तथा कन्या भ्रूण हत्या पर भी रोक लगायी। अन्ग्रेजों द्वारा ठगी का खात्मा भी किया गया परन्तु यह सन्देह अभी भी बना हुआ है कि ठग एक धार्मिक समुदाय था या सिर्फ़ साधारण डकैतों का समुदाय।
ब्रितानी न्याय व्यवस्था भारतीयों के लिये अन्यायपूर्ण मानी जाती थी। सन 1853 में ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री लौर्ड अब्रेडीन ने प्रशासनिक सेवा को भारतीयों के लिये खोल दिया परन्तु कुछ प्रबुद्ध भारतीयों के हिसाब से यह सुधार काफ़ी नही था। कंपनी के अधिकारियों को भारतीयों के खिलाफ़् अदालत में अनेक अपीलों का अधिकार प्राप्त था। कंपनी भारतीयों पर भारी कर भी लगाती थी जिसे न चुकाने की स्थिति में उनकी संपत्ति अधिग्रहित कर् ली जाती थी।
कंपनी के आधुनिकीकरण के प्रयासों को पारम्परिक भारतीय समाज में सन्देह की दृष्टि से देखा गया। लोगो ने माना कि रेल्वे जो बाम्बे से सर्व्प्रथम चला एक दानव है और लोगो पर विपत्ती लायेगा।
परन्तु बहुत से इतिहासकारों का यह भी मानना है कि इन सुधारों को बढ़ा चढ़ा कर बताया गया है क्योंकी कंपनी के पास इन सुधारों को लागू करने के साधन नही थे और कलकत्ता से दूर उनका प्रभाव नगन्य था |
आर्थिक कारण
 
1857 के विद्रोह का एक प्रमुख कारण कंपनी द्वारा भारतीयों का आर्थिक शोषण भी था। कंपनी की नीतियों ने भारत की पारम्परिक अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से खत्म कर दिया था। इन नीतियों की वजह से बहुत से किसान,कारीगर,मजदूर और कलाकार कंगाल हो गये। इनके साथ साथ जमींदारों और बडे किसानों की हालत भी बदतर हो गयी। सन 1813 में कंपनी ने एक तरफ़ा मुक्त व्यापार की नीति अपना ली इसके अन्तर्गत ब्रितानी व्यापारियों को आयात करने की पूरी छूट मिल गयी, परम्परागत तकनीक से बनी हुई भारतीय वस्तुएं इसके सामने टिक नहीं सकी और भारतीय शहरी हस्तशिल्प व्यापार को अकल्प्नीय नुकसान हुआ।
रेल सेवा के आने के साथ ग्रामीण क्षेत्र के लघु उद्यम भी नष्ट हो गये। रेल सेवा ने ब्रितानी व्यापारियों को दूर दराज के गावों तक पहुंच दे दी। सबसे ज्यादा नुकसान कपडा उद्योग (कपास और रेशम ) को हुआ। इसके साथ लोहा व्यापार, बर्तन,कांच,कागज,धातु,बन्दूक,जहाज और रंगरेजी के उद्योग को भी बहुत नुकसान हुआ। 18 वीं और 19 वीं शताब्दी में ब्रिटेन और यूरोप में आयात कर और अनेक रोकों के चलते भारतीय निर्यात खत्म हो गया। पारम्परिक उद्योगों के नष्ट होने और साथ साथ आधुनिक उद्योगों का विकास न होने की वजह से यह स्थिति और भी विषम हो गयी। साधारण जनता के पास खेती के अलावा कोई और साधन नही बचा।
खेती करने वाले किसानो की हालत भी खराब थी। ब्रितानी शासन के प्रारम्भ में किसानो को जमीदारों की दया पर् छोड दिया गया जिन्होने लगान को बहुत बडा दिया और बेगार तथा अन्य तरीकों से किसानो का शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। कंपनी ने खेती के सुधार पर बहुत कम खर्च किया और अधिकतर लगान कंपनी के खर्चों को पूरा करने मे प्रयोग होता था। फ़सल के खराब होने की दशा में किसानो को साहूकार अधिक ब्याज पर कर्जा देते थे और अनपढ़ किसानो कई तरीकों से ठगते थे। ब्रितानी कानून व्यवस्था के अन्तर्गत भूमि हस्तांतरण वैध हो जाने के कारण किसानो को अपनी जमीन से भी हाथ धोना पडता था।
इन समस्याओं के कारण समाज के हर वर्ग में असन्तोष व्याप्त था।
 
 राजनैतिक कारण
 
सन 1848 और 1856 के बीच लार्ड डलहोजी ने डाक्ट्रिन औफ़ लैप्स के कानून के अन्तर्गत अनेक राज्यों पर कब्जा कर लिया। इस सिद्धांत अनुसार कोई राज्य, क्षेत्र या ब्रितानी प्रभाव का क्षेत्र कंपनी के अधीन हो जायेगा यदि क्षेत्र का राजा निसन्तान मर जाता है या शासक कंपनी की नजरों में अयोग्य साबित होता है। इस सिद्धांत पर कार्य करते हुए लार्ड डलहोजी और उसके उत्तराधिकारी लार्ड कैन्निग ने सतारा,नागपुर,झाँसी,अवध को कंपनी के शासन में मिला लिया। कंपनी द्वारा तोडी गय़ी सन्धियों और वादों के कारण कंपनी की राजनैतिक विश्वसनियता पर भी प्रश्नचिन्ह लग चुका था। सन 1849 में लार्ड डलहोजी की घोषणा के अनुसार बहादुर शाह के उत्तराधिकारी को ऐतिहासिक लाल किला छोडना पडेगा और शहर के बाहर जाना होगा और सन 1856 में लार्ड कैन्निग की घोषणा कि बहादुर शाह के उत्तराधिकारी राजा नहीं कहलायेंगे ने मुगलों को कंपनी के विद्रोह में खडा कर दिया।
 
 सिपाहियों की आशंका
 
सिपाही मूलत: कंपनी की बंगाल सेना मे काम करने वाले भारतीय मूल के सैनिक थे। बाम्बे, मद्रास और बंगाल प्रेसीडेन्सी की अपनी अलग सेना और सेनाप्रमुख होता था। इस सेना में ब्रितानी सेना से ज्यादा सिपाही थे। सन 1857 में इस सेना मे 257,000 सिपाही थे। बाम्बे और मद्रास प्रेसीडेन्सी की सेना मे अलग अलग क्षेत्रो के लोग होने की वजह से ये सेनाएं विभिन्नता से पूर्ण थी और इनमे किसी एक क्षेत्र के लोगो का प्रभुत्व नही था। परन्तु बंगाल प्रेसीडेन्सी की सेना मे भर्ती होने वाले सैनिक मुख्यत: अवध और गन्गा के मैदानी इलाको के भूमिहार राजपूत और ब्राह्मिन थे। कंपनी के प्रारम्भिक वर्षों में बंगाल सेना में जातिगत विशेषाधिकारों और रीतिरिवाजों को महत्व दिया जाता था परन्तु सन 1840 के बाद कलकत्ता में आधुनिकता पसन्द सरकार आने के बाद सिपाहियों में अपनी जाति खोने की आशंका व्याप्त हो गयी [२]। सेना में सिपाहियों को जाति और धर्म से सम्बन्धित चिन्ह पहनने से मना कर दिया गया। सन 1856 मे एक आदेश के अन्तर्गत सभी नये भर्ती सिपाहियों को विदेश मे कुछ समय के लिये काम करना अनिवार्य कर दिया गया। सिपाही धीरे-धीरे सेना के जीवन के विभिन्न पहलुओं से असन्तुष्ट हो चुके थे। सेना का वेतन कम था और अवध और पंजाब जीतने के बाद सिपाहियों का भत्ता भी खत्म कर् दिया गया था। एनफ़ील्ड बंदूक के बारे में फ़ैली अफवाहों ने सिपाहियों की आशन्का को और बडा दिया कि कंपनी उनकी धर्म और जाति परिवर्तन करना चाहती है।
एनफ़ील्ड बंदूक
विद्रोह का प्रारम्भ एक बंदूक की वजह से हुआ। सिपाहियों को पैटऱ्न 1853 एनफ़ील्ड बंदूक दी गयीं जो कि 0.577 कैलीबर की बंदूक थी तथा पुरानी और कई दशकों से उपयोग मे लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले मे शक्तिशाली और अचूक थी। नयी बंदूक मे गोली दागने की आधुनिक प्रणाली (प्रिकशन कैप) का प्रयोग किया गया था परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी। नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पडता था और उसमे भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पडता था। कारतूस का बाहरी आवरण मे चर्बी होती थी जो कि उसे पानी की सीलन से बचाती थी।
सिपाहियों के बीच अफ़वाह फ़ैल चुकी थी कि कारतूस मे लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी जाती है। यह हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों दोनो की धार्मिक भावनाओं के खिलाफ़ था। ब्रितानी अफ़सरों ने इसे अफ़वाह बताया और सुझाव दिया कि सिपाही नये कारतूस बनाये जिसमे बकरे या मधुमक्क्खी की चर्बी प्रयोग की जाये। इस सुझाव ने सिपाहियों के बीच फ़ैली इस अफ़वाह को और पुख्ता कर दिया। दूसरा सुझाव यह दिया गया कि सिपाही कारतूस को दांतों से काटने की बजाय हाथों से खोलें। परंतु सिपाहियों ने इसे ये कहते हुए अस्विकार कर दिया कि वे कभी भी नयी कवायद को भूल सकते हैं और दांतों से कारतूस को काट सकते हैं।
तत्कालीन ब्रितानी सेना प्रमुख (भारत) जार्ज एनसन ने अपने अफ़सरों की सलाह को नकारते हुए इस कवायद और नयी बंदूक से उत्पन्न हुई समस्या को सुलझाने से इन्कार कर दिया।
 
अफ़वाहें
 
ऐक और अफ़वाह जो कि उस समय फ़ैली हुई थी, कंपनी का राज्य सन 1757 मे प्लासी का युद्ध से प्रारम्भ हुआ था और सन 1857 में 100 साल बाद खत्म हो जायेगा। चपातियां और कमल के फ़ूल भारत के अनेक भागों में वितरित होने लगे। ये आने वाले विद्रोह की निशानी थी।
 
युद्ध का प्रारम्भ
 
विद्रोह प्रारम्भ होने के कई महीनो पहले से तनाव का वातावरण बन गया था और कई विद्रोहजनक घटनायें घटीं। 24 जनवरी 1857 को कलकत्ता के निकट आगजनी की कयी घटनायें हुई। 26 फ़रवरी 1857 को 19 वीं बंगाल नेटिव इनफ़ैन्ट्री ने नये कारतूसों को प्रयोग करने से मना कर दिया। रेजीमेण्ट् के अफ़सरों ने तोपखाने और घुडसवार दस्ते के साथ इसका विरोध किया पर बाद में सिपाहियों की मांग मान ली।
मंगल पाण्डेय
मंगल पाण्डेय 34 वीं बंगाल नेटिव इनफ़ैन्ट्री मे एक सिपाही थे। मार्च 29, 1857 को बैरकपुर परेड मैदान कलकत्ता के निकट मंगल पाण्डेय ने रेजीमेण्ट के अफ़सर लेफ़्टीनेण्ट बाग पर हमला कर के उसे जख्मी कर दिया। जनरल जान हेएरसेये के अनुसार मंगल पाण्डेय किसी प्रकार के मजहबी पागलपन मे था। जनरल ने जमादार ईश्वरी प्रसाद को मंगल पांडेय को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया पर जमादार ने ईन्कार कर दिया। सिवाय एक सिपाही शेख पलटु को छोड कर सारी रेजीमेण्ट ने मंगल पाण्डेय को गिरफ़्तार करने से मना कर दिया। मंगल पाण्डेय ने अपने साथीयों को खुलेआम विद्रोह करने के लिये कहा पर किसी के ना मानने पर उसने अपनी बंदूक से अपनी जान लेने की कोशिश करी। परन्तु वह इस प्रयास मे सिर्फ़ घायल हुआ। अप्रैल 6, 1857 को मंगल पाण्डेय का कोर्ट मार्शल कर दिया गया और 8 अप्रैल को फ़ांसी दे दी गयी।
जमादार ईश्वरी प्रसाद को भी मौत की सजा दी गयी और उसे भी 22 अप्रैल को फ़ांसी दे दी गयी। सारी रेजीमेण्ट को खत्म कर दिया गया और सिपाहियों को निकाल दिया गया। सिपाही शेख पलटु को तरक्की दे कर बंगाल सेना में जमादार बना दिया गया ।
अन्य रेजीमेण्ट के सिपाहियों को यह सजा बहुत ही कठोर लगी। कई ईतिहासकारों के मुताबिक रेजीमेण्ट को खत्म करने और सिपाहियों को बाहर निकालने ने विद्रोह के प्रारम्भ होने मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, असंतुष्ट सिपाही बदला लेने की इच्छा के साथ अवध लौटे और विद्रोह ने उने यह मौका दे दिया।
अप्रैल के महीने में आगरा , इलाहाबाद और अंबाला शहर मे भी आगजनी की घटनायें हुयीं।

गाँधी युग

राष्ट्रवाद के इतिहास में प्राय: एक अकेले व्यक्ति को राष्ट्र-निर्माण के साथ जोड़कर देखा जाता है। उदाहरण के लिए, हम इटली के निर्माण के साथ गैरीबाल्डी को, अमेरिकी स्वतंत्रता युद्ध के साथ जॉर्ज वाशिंगटन को और वियतनाम को औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराने के संघर्ष से हो ची मिन्ह को जोड़कर देखते हैं। इसी तरह महात्मा गाँधी को भारतीय राष्ट्र का ‘पिता’ माना गया है।
चूंकि गाँधी जी स्वतंत्रता संघर्ष में भाग लेने वाले सभी नेताओं में सर्वाधिक प्रभावशाली और सम्मानित हैं अत: उन्हें दिया गया उपर्युक्त विशेषण गलत नहीं है। हालांकि, वाशिंगटन अथवा हो ची मिन्ह की तरह महात्मा गाँधी का राजनीतिक जीवन-वृत्त उस समाज ने ही संवारा और नियंत्रित किया, जिस समाज में वे रहते थे। कोई व्यक्ति चाहे कितना ही महान क्यों न हो वह न केवल इतिहास बनाता है बल्कि स्वयं भी इतिहास द्वारा बनाया जाता है।
इस लेख में 1915-1948 के महत्वपूर्ण काल के दौरान भारत में गाँधी जी की गतिविधियों का विश्लेषण किया गया है। यह भारतीय समाज के विभिन्न हिस्सों के साथ उनके संपर्कों और उनके द्वारा प्रेरित तथा नेतृत्व किए गए लोकप्रिय संघर्षों की छान-बीन करता है। यह लेख विद्यार्थी के समक्ष उन अलग-अलग प्रकार के स्रोतों को भी रखता है जिनका इस्तेमाल, इतिहासकार एक नेता के जीवन-वृत्त तथा वह जिन सामाजिक आंदोलनों से जुड़ा रहा है, के पुनर्निर्माण में करते हैं।
1- स्वयं की उद्घोषणा करता एक नेता
मोहनदास करमचंद गाँधी विदेश में दो दशक रहने के बाद जनवरी 1915 में अपनी गृहभूमि वापस आए। इन वर्षों का अधिकांश हिस्सा उन्होंने दक्षिण अफ़्रिका में बिताया। यहाँ वे एक वकील के रूप में गए थे और बाद में वे इस क्षेत्र के भारतीय समुदाय के नेता बन गए। जैसाकि इतिहासकार चंद्रन देवनेसन ने टिप्पणी की है कि दक्षिण अफ़्रिका ने ही गाँधी जी को ‘महात्मा’ बनाया। दक्षिण अफ़्रिका में ही महात्मा गाँधी ने पहली बार सत्याग्रह के रूप में जानी गई अहिंसात्मक विरोधि की अपनी विशिष्ट तकनीक का इस्तेमाल किया, विभिन्न धर्मों के बीच सौहार्द बढ़ाने का प्रयास किया तथा उच्च जातीय भारतीयों को निम्न जातियों और महिलाओं के प्रति भेदभाव वाले व्यवहार के लिए चेतावनी दी। 1915 में जब महात्मा गाँधी भारत आए तो उस समय का भारत 1893 में जब वे यहाँ से गए थे तब के समय से अपेक्षाकॄत भिन्न था। यद्यपि यह अभी भी एक ब्रिटिश उपनिवेश था लेकिन अब यह राजनीतिक दृष्टि से कहीं अधिक सक्रिय हो गया था। अधिकांश प्रमुख शहरों और कस्बों में अब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की शाखाएँ थीं। 1905-07 के स्वदेशी आंदोलन के माध्यम से इसने व्यापक रूप से मध्य वगों के बीच अपनी अपील का विस्तार कर लिया था। इस आंदोलन ने कुछ प्रमुख नेताओं को जन्म दिया, जिनमें महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक, बंगाल के विपिन चंद्र पाल और पंजाब के लाला लाजपत राय हैं। ये तीनों ‘लाल, बाल और पाल’ के रूप में जाने जाते थे। इन तीनों का यह जोड़ उनके संघर्ष के अखिल भारतीय चरित्र की सूचना देता था क्योंकि तीनों के मूल निवास क्षेत्र एक दूसरे से बहुत दूर थे। इन नेताओं ने जहाँ औपनिवेशिक शासन के प्रति लड़ाकू विरोध का समर्थन किया वहीं ‘उदारवादियों’ का एक समूह था जो एक क्रमिक व लगातार प्रयास करते रहने के विचार का हिमायती था। इन उदारवादियों में गाँधी जी के मान्य राजनीतिक परामर्शदाता गोपाल कॄष्ण गोखले के साथ ही मोहम्मद अली जिन्ना थे, जो गाँधी जी की ही तरह गुजराती मूल के लंदन में प्रशिक्षित वकील थे।
गोखले ने गाँधी जी को एक वर्ष तक ब्रिटिश भारत की यात्रा करने की सलाह दी जिससे कि वे इस भूमि और इसके लोगों को जान सकें। उनकी पहली महत्वपूर्ण सार्वजनिक उपस्थिति फ़रवरी 1916 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में हुई। इस समारोह में आमंत्रित व्यक्तियों में वे राजा और मानवप्रेमी थे जिनके द्वारा दिए गए दान ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में योगदान दिया। समारोह में एनी बेसेंट जैसे कांग्रेस के कुछ महत्वपूर्ण नेता भी उपस्थित थे। इन प्रतिष्ठित व्यक्तियों की तुलना में गाँधी जी अपेक्षाकॄत अज्ञात थे। उन्हें यहाँ भारत के अंदर उनकी प्रतिष्ठा के कारण नहीं बल्कि दक्षिण अफ़्रीका में उनके द्वारा किए गए कार्य के आधार पर आमंत्रित किया गया था। जब गाँधी जी की बोलने की बारी आई तो उन्होंने मजदूर गरीबों की ओर ध्यान न देने के कारण भारतीय विशिष्ट वर्ग को आड़े हाथों लिया। उन्होंने कहा कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना ‘निश्चय ही अत्यंत शानदार’ है किन्तु उन्होंने वहाँ धिनी व सजे-सँवरे भद्रजनों की उपस्थिति और ‘लाखों गरीब’ भारतीयों की अनुपस्थिति के बीच की विषमता पर अपनी चिंता प्रकट की।
गाँधी जी ने विशेष सुविधा प्राप्त आमंत्रितों से कहा कि ‘भारत के लिए मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक कि आप अपने को इन अलंकरणों से मुक्त न कर लें और इन्हें भारत के अपने हमवतनों की भलाई में न लगा दें’। वे कहते गए कि, ‘हमारे लिए स्वशासन का तब तक कोई अभिप्राय नहीं है जब तक हम किसानों से उनके श्रम का लगभग सम्पूर्ण लाभ स्वयं अथवा अन्य लोगों को ले लेने की अनुमति देते रहेंगे। हमारी मुक्ति केवल किसानों के माध्यम से ही हो सकती है। न तो वकील, न डॉक्टर, न ही जमींदार इसे सुरक्षित रख सकते हैं।’ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना एक उत्सव का अवसर था क्योंकि यह भारतीय धिन और भारतीय प्रयासों से संभव एक राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय की स्थापना का द्योतक था। लेकिन गाँधी जी ने स्वयं को बधिाई देने के सुर में सुर मिलाने की अपेक्षा लोगों को उन किसानों और कामगारों की याद दिलाना चुना जो भारतीय जनसंख्या के अधिसंख्य हिस्से का निर्माण करने के बावजूद वहाँ श्रोताओं में अनुपस्थित थे। एक दृष्टि से फ़रवरी 1916 में बनारस में गाँधी जी का भाषण मात्र वास्तविक तथ्य का ही उद्घाटन था अर्थात भारतीय राष्ट्रवाद वकीलों, डॉक्टरों और जमींदारों जैसे विशिष्ट वर्गों द्वारा निर्मित था। लेकिन दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो यह वक्तव्य उनकी मंशा भी जाहिर करता था। यह भारतीय राष्ट्रवाद को सम्पूर्ण भारतीय लोगों का और अधिक अच्छे ढंग से प्रतिनिधित्व करने में सक्षम बनाने की गाँधी जी की स्वयं की इच्छा की प्रथम सार्वजनिक उद्घोषणा थी।  उसी वर्ष के अंतिम माह में गाँधी जी को अपने नियमों को व्यवहार में लाने का अवसर मिला। दिसम्बर 1916 में लखनउफ में हुई वार्षिक कांग्रेस में बिहार में चंपारन से आए एक किसान ने उन्हें वहाँ अंग्रेज नील उत्पादकों द्वारा किसानों के प्रति किए जाने वाले कठोर व्यवहार के बारे में बताया।
2- असहयोग की शुरुआत और अंत
1917 का अधिकांश समय महात्मा गाँधी को किसानों के लिए काश्तकारी की सुरक्षा के साथ-साथ अपनी पसंद की फ़सल उपजाने की आजादी दिलाने में बीता। अगले वर्ष यानी 1918 में गाँधी जी गुजरात के अपने गृह राज्य में दो अभियानों में संलग्न रहे। सबसे पहले उन्होंने अहमदाबाद के एक श्रम विवाद में हस्तक्षेप कर कपड़े की मिलों में काम करने वालों के लिए काम करने की बेहतर स्थितियों की माँग की। इसके बाद उन्होंने खेड़ा में फ़सल चौपट होने पर राज्य से किसानों का लगान माफ़ करने की माँग की। चंपारन, अहमदाबाद और खेड़ा में की गई पहल से गाँधी जी एक ऐसे राष्ट्रवादी के रूप में उभरे जिनमें गरीबों के लिए गहरी सहानुभूति थी। इसी तरह ये सभी स्थानिक संघर्ष थे। इसके बाद 1919 में औपनिवेशिक शासकों ने गाँधी जी की झोली में एक ऐसा मुद्दा डाल दिया जिससे वे कहीं अधिक विस्तृत आंदोलन खड़ा कर सकते थे।
1914-18 के महान युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया था और बिना जाँच के कारावास की अनुमति दे दी थी। अब सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता वाली एक समिति की संस्तुतियों के आधार पर इन कठोर उपायों को जारी रखा गया। इसके जवाब में गाँधी जी ने देशभर में ‘रॉलेट एक्ट’ के खिलाफ़ एक अभियान चलाया। उत्तरी और पश्चिमी भारत के कस्बों में चारों तरफ़ बंद के समर्थन में दुकानों और स्कूलों के बंद होने के कारण जीवन लगभग ठहर सा गया था। पंजाब में, विशेष रूप से कड़ा विरोध हुआ, जहाँ के बहुत से लोगों ने युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में सेवा की थी और अब अपनी सेवा के बदले वे ईनाम की अपेक्षा कर रहे थे। लेकिन इसकी जगह उन्हें रॉलेट एक्ट दिया गया। पंजाब जाते समय गाँधी जी को कैद कर लिया गया। स्थानीय कांग्रेसजनों को गिरफ़तार कर लिया गया था। प्रांत की यह स्थिति धीरे-धीरे और तनावपूर्ण हो गई तथा अप्रैल 1919 में अमृतसर में यह खूनखराबे के चरमोत्कर्ष पर ही पहुँच गई। जब एक अंग्रेज ब्रिगेडियर ने एक राष्ट्रवादी सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया तब जलियाँवाला बाग हत्याकांड के नाम से जाने गए इस हत्याकांड में चार सौ से अधिक लोग मारे गए।
रॉलेट सत्याग्रह से ही गाँधी जी एक सच्चे राष्ट्रीय नेता बन गए। इसकी सफ़लता से उत्साहित होकर गाँधी जी ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ़ ‘असहयोग’ अभियान की माँग कर दी। जो भारतीय उपनिवेशवाद का ख्त्म़ करना चाहते थे उनसे आग्रह किया गया कि वे स्कूलो, कॉलेजो और न्यायालय न जाएँ तथा कर न चुकाएँ। संक्षेप में सभी को अंग्रेजी सरकार के साथ ;सभी ऐच्छिक संबंधो के परित्याग का पालन करने को कहा गया। गाँधी जी ने कहा कि यदि असहयोग का ठीक ढंग से पालन किया जाए तो भारत एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्त कर लेगा। अपने संघर्ष का और विस्तार करते हुए उन्होंने खिलाप्फ़ात आंदोलन के साथ हाथ मिला लिए जो हाल ही में तुर्की शासक कमाल अतातुर्क द्वारा समाप्त किए गए सर्व-इस्लामवाद के प्रतीक खलीफ़ा की पुनर्स्थापना की माँग कर रहा था।
2-1 एक लोकप्रिय आंदोलन की तैयारी
गाँधी जी ने यह आशा की थी कि असहयोग को खिलाफ़त के साथ मिलाने से भारत के दो प्रमुख समुदाय- हिन्दू और मुसलमान मिलकर औपनिवेशिक शासन का अंत कर देंगे। इन आंदोलनों ने निश्चय ही एक लोकप्रिय कार्रवाही के बहाव को उन्मुक्त कर दिया था और ये चीजें औपनिवेशिक भारत में बिलकुल ही अभूतपूर्व थीं। विद्यार्थियों ने सरकार द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया। वकीलों ने अदालत में जाने से मना कर दिया। कई कस्बों और नगरों में श्रमिक-वर्ग हड़ताल पर चला गया। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 1921 में 396 हड़तालें हुई जिनमें 6 लाख श्रमिक शामिल थे और इससे 70 लाख कार्यदिवसों का नुकसान हुआ था। देहात भी असंतोष से आंदोलित हो रहा था। पहाड़ी जनजातियों ने वन्य कानूनों की अवहेलना कर दी। अवधि के किसानों ने कर नहीं चुकाए। कुमाउँ के किसानों ने औपनिवेशिक अधिकारियों का सामान ढोने से मना कर दिया। इन विरोधि आंदोलनों को कभी-कभी स्थानीय राष्ट्रवादी नेतृत्व की अवज्ञा करते हुए कार्यान्वयित किया गया। किसानों, श्रमिकों और अन्य ने इसकी अपने ढंग से व्याख्या की तथा औपनिवेशिक शासन के साथ ‘असहयोग’ के लिए उन्होंने उपर से प्राप्त निर्देशों पर टिके रहने के बजाय अपने हितों से मेल खाते तरीकों का इस्तेमाल कर कार्रवाही की।
महात्मा गाँधी के अमरीकी जीवनी-लेखक लुई फ़िशर ने लिखा है कि ‘असहयोग भारत और गाँधी जी के जीवन के एक युग का ही नाम हो गया। असहयोग शांति की दृष्टि से नकारात्मक किन्तु प्रभाव की दृष्टि से बहुत सकारात्मक था। इसके लिए प्रतिवाद, परित्याग और स्व-अनुशासन आवश्यक थे। यह स्वशासन के लिए एक प्रशिक्षण था।’ 1857 के विद्रोह के बाद पहली बार असहयोग आंदोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेजी राज की नींव हिल गई।
फ़रवरी 1922 में किसानों के एक समूह ने संयुक्त प्रांत के चौरी-चौरा पुरवा में एक पुलिस स्टेशन पर आक्रमण कर उसमें आग लगा दी। इस अग्निकांड में कई पुलिस वालों की जान चली गई। हिंसा की इस कार्यवाही से गाँधी जी को यह आंदोलन तत्काल वापस लेना पड़ा। उन्होंने जोर दिया कि, ‘किसी भी तरह की उत्तेजना को निहत्थे और एक तरह से भीड़ की दया पर निर्भर व्यक्तियों की घृणित हत्या के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है’।
असहयोग आंदोलन के दौरान हजारों भारतीयों को जेल में डाल दिया गया। स्वयं गाँधी जी को मार्च 1922 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ़तार कर लिया गया। उन पर जाँच की कार्रवाही की अध्यक्षता करने वाले जज जस्टिस सी- एन- ब्रूमफ़ील्ड ने उन्हें सजा सुनाते समय एक महत्वपूर्ण भाषण दिया। जज ने टिप्पणी की कि, इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि मैने आज तक जिनकी जाँच की है अथवा करूँगा आप उनसे भिन्न श्रेणी के हैं। इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि आपके लाखों देशवासियों की दृष्टि में आप एक महान देशभक्त और नेता हैं। यहाँ तक कि राजनीति में जो लोग आपसे भिन्न मत रखते हैं वे भी आपको उच्च आदशो और पवित्र जीवन वाले व्यक्ति के रूप में देखते हैं। चूँकि गाँधी जी ने कानून की अवहेलना की थी अत: उस न्याय पीठ के लिए गाँधी जी को 6 वर्षों की जेल की सजा सुनाया जाना आवश्यक था। लेकिन जज ब्रूमफ़ील्ड ने कहा कि ‘यदि भारत में घट रही घटनाओं की वजह से सरकार के लिए सजा के इन वर्षों में कमी और आपको मुक्त करना संभव हुआ तो इससे मुझसे ज्यादा कोई प्रसन्न नहीं होगा।
2-2 जन नेता
1922 तक गाँधी जी ने भारतीय राष्ट्रवाद को एकदम परिवर्तित कर दिया और इस प्रकार फ़रवरी 1916 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अपने भाषण में किए गए वायदे को उन्होंने पूरा किया। अब यह व्यावसायिकों व बुद्धिजीवियों का ही आंदोलन नहीं रह गया था, अब हजारों की संख्या में किसानों, श्रमिकों और कारीगरों ने भी इसमें भाग लेना शुरू कर दिया। इनमें से कई गाँधी जी के प्रति आदर व्यक्त करते हुए उन्हें अपना ‘महात्मा’ कहने लगे। उन्होंने इस बात की प्रशंसा की कि गाँधी जी उनकी ही तरह के वस्त्र पहनते थे, उनकी ही तरह रहते थे और उनकी ही भाषा में बोलते थे। अन्य नेताओं की तरह वे सामान्य जनसमूह से अलग नहीं खड़े होते थे बल्कि वे उनसे समानुभूति रखते तथा उनसे घनिष्ठ संबंधि भी स्थापित कर लेते थे। सामान्य जन के साथ इस तरह की पहचान उनके वस्त्रों में विशेष रूप से परिलक्षित होती थी। जहाँ अन्य राष्ट्रवादी नेता पश्चिमी शैली के सूट अथवा भारतीय बंदगला जैसे औपचारिक वस्त्र पहनते थे वहीं गाँधी जी लोगों के बीच एक साधारण धोती में जाते थे। इस बीच, प्रत्येक दिन का कुछ हिस्सा वे चरखा चलाने में बिताते थे। अन्य राष्ट्रवादियों को भी उन्होंने ऐसा करने के लिए  प्रोत्साहित किया। सूत कताई के कार्य ने गाँधी जी को पारंपरिक जाति व्यवस्था में प्रचलित मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम की दीवार को तोड़ने में मदद दी।
इतिहासकार शाहिद अमीन ने एक मंत्रमुग्ध कर देने वाले अध्ययन में स्थानीय प्रेस द्वारा ज्ञात रिपोटोरं और अफ़वाहों के जरिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसानों के मन में महात्मा गाँधी की जो कल्पना थी, उसे ढूँढ़ निकालने की कोशिश की है। फ़रवरी 1921 में जब वे इस क्षेत्र से गुजर रहे थे तो हर जगह भीड़ ने उनका बड़े प्यार से स्वागत किया। उनके भाषणों के दौरान वैफसा माहौल होता था इस पर गोरखपुर के एक हिंदी समाचारपत्र ने यह रिपोर्ट लिखी है: भटनी में गाँधी जी ने स्थानीय जनता को संबोध्ति किया और इसके बाद ट्रेन गोरखपुर के लिए रवाना हो गई। नूनखार, देवरिया, गौरी बाजार, चौरी-चौरा और कुसुमही ;स्टेशनों पर 15 से 20 हजार से कम लोग नहीं थे— महात्मा जी कुसुमीही के दृश्य को देखकर बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि जंगल के बीच स्थित होने के बावजूद उस स्टेशन पर 10,000 से कम लोग नहीं थे। प्रेम में अभिभूत होकर कुछ लोग रोते हुए देखे गए।
देवरिया में लोग गाँधी जी को भेनी ;दान देना चाहते थे किंतु इसे उन्होंने उनसे गोरखपुर में देने को कहा। लेकिन चौरी-चौरा में एक मारवाड़ी सज्जन ने किसी तरह उन्हें कुछ दे दिया। इसके बाद यह क्रम रुका ही नहीं। एक चादर फ़ैला दी गई जिस पर रुपयों और सिक्कों की बारिश होने लगी। यह दृश्य था— गोरखपुर स्टेशन के बाहर महात्मा एक उँची गाड़ी पर खड़े हो गए और लोगों ने कुछ मिनटों के लिए उनके दर्शन कर लिए। गाँधी जी जहाँ भी गए वहीं उनकी चामत्कारिक शक्तियों की अफ़वाहें फ़ैल गई। कुछ स्थानों पर यह कहा गया कि उन्हें राजा द्वारा किसानों के दुख तकलीफ़ों में सुधर के लिए भेजा गया है तथा उनके पास सभी स्थानीय अधिकारियों के निर्देशों को अस्वीकॄत करने की शक्ति है। कुछ अन्य स्थानों पर यह दावा किया गया कि गाँधी जी की शक्ति अंग्रेज बादशाह से उत्कॄष्ट है और यह कि उनके आने से औपनिवेशिक शासक भाग जाएँगे। गाँधी जी का विरोध् करने वालों के लिए भयंकर परिणाम की बात बताती कहानियाँ भी थीं। इस तरह की अफ़वाहें पैफलीं कि गाँधी जी की आलोचना करने वाले गाँव के लोगों के घर रहस्यात्मक रूप से गिर गए अथवा उनकी फ़सल चौपट हो गई।
‘गाँधी बाबा’, ‘गाँधी महाराज’ अथवा सामान्य ‘महात्मा’ जैसे अलग-अलग नामों से ज्ञात गाँधी जी भारतीय किसान के लिए एक उद्वारक के समान थे जो उनकी उँची करों और दमनात्मक अधिकारियों से सुरक्षा करने वाले और उनके जीवन में मान-मर्यादा और स्वायत्तता वापस लाने वाले थे। ग्ऱीबों विशेषकर किसानों के बीच गाँधी जी की अपील को उनकी सात्विक जीवन शैली और उनके द्वारा धोती तथा चरखा जैसे प्रतीकों के विवेकपूर्ण प्रयोग से बहुत बल मिला। जाति से महात्मा गाँधी एक व्यापारी व पेशे से वकील थे, लेकिन उनकी सादी जीवन-शैली तथा हाथों से काम करने के प्रति उनके लगाव की वजह से वे गरीब श्रमिकों के प्रति बहुत अधिक समानुभूति रखते थे तथा बदले में वे लोग गाँधी जी से समानुभूति रखते थे। जहाँ अधिकांश अन्य राजनीतिक उन्हें कॄपा की दृष्टि से देखते थे वहीं ये न केवल उनके जैसा दिखने बल्कि उन्हें अच्छी तरह समझने और उनके जीवन के साथ स्वयं को जोड़ने के लिए सामने आते थे।
महात्मा गाँधी का जन अनुरोध निस्संदेह कपट से मुक्त था और भारतीय राजनीति के संदर्भ में तो बिना किसी पूर्वोदाहरण के यह भी कहा जा सकता है कि राष्ट्रवाद के आधर को और व्यापक बनाने में उनकी सफ़लता का राज उनके द्वारा सावधनीपूर्वक किया गया संगठन था। भारत के विभिन्न भागों में कांग्रेस की नयी शाखाएँ खोली गयी। रजवाड़ों में राष्ट्रवादी सिद्धान्त को बढ़ावा देने के लिए ‘प्रजा मंडलों’ की एक श्रंखला स्थापित की गई। गाँधी जी ने राष्ट्रवादी संदेश का संचार शासकों की अंग्रेजी भाषा की जगह मातृ भाषा में करने को प्रोत्साहित किया। इस प्रकार कांग्रेस की प्रांतीय समितियाँ ब्रिटिश भारत की कॄत्रिम सीमाओं की अपेक्षा भाषाई क्षेत्रो पर आधरित थीं। इन अलग-अलग तरीकों से राष्ट्रवाद देश के सुदूर हिस्सों तक फ़ैल गया और अब इसमें वे सामाजिक वर्ग भी शामिल हो गए जो अभी तक इससे अछूत थे।
अब तक कांग्रेस के समर्थकों में कुछ बहुत ही समृद्ध व्यापारी और उद्योगपति शामिल हो गए थे। भारतीय उद्यमियों ने यह बात जल्दी ही समझ ली कि उनके अंग्रेज प्रतिद्वन्दी आज जो लाभ पा रहे हैं, स्वतंत्र भारत में ये चीजें समाप्त हो जाएँगी। जी- डी- बिड़ला जैसे कुछ उद्यमियों ने राष्ट्रीय आंदोलन का खुला समर्थन किया जबकि अन्य ने ऐसा मौन रूप से किया। इस प्रकार गाँधी जी के प्रशंसकों में गरीब किसान और धनी उद्योगपति दोनों ही थे हालांकि किसानों द्वारा गाँधी जी का अनुकरण करने के कारण उद्योगपतियों के कारणों से कुछ भिन्न और संभवत: परस्पर विरोधी थे। हालाँकि महात्मा गाँधी की स्वयं बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी लेकिन ‘गाँधीवादी राष्ट्रवाद’ का विकास बहुत हद तक उनके अनुयायियों पर निर्भर करता था।
1917 और 1922 के बीच भारतीयों के एक बहुत ही प्रतिभाशाली वर्ग ने स्वयं को गाँधी जी से जोड़ लिया। इनमें महादेव देसाई, वल्लभ भाई पटेल, जे- बी- कॄपलानी, सुभाष चंद्र बोस, अबुल कलाम आजाद, जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, गोविंद वल्लभ पंत और सी- राजगोपालाचारी शामिल थे। गाँधी जी के ये घनिष्ठ सहयोगी विशेषरूप से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के साथ ही भिन्न-भिन्न धर्मिक परंपराओं से आए थे। इसके बाद उन्होंने अनगिनत अन्य भारतीयों को कांग्रेस में शामिल होने और इसके लिए काम करने के लिए प्रेरित किया। महात्मा गाँधी फ़रवरी 1924 में जेल से रिहा हो गए और अब उन्होंने अपना ध्यान घर में बुने कपड़े ;खादीद् को बढ़ावा देने तथा छूआ-छूत को समाप्त करने पर लगाया। गाँधी जी राजनीतिक जितने थे उतने ही वे समाज सुधारक थे। उनका विश्वास था कि स्वतंत्रता के योग्य बनने के लिए भारतीयों को बाल विवाह और छूआ-छूत जैसी सामाजिक बुराइयों से मुक्त होना पड़ेगा। एक मत के भारतीयों को दूसरे मत के भारतीयों के लिए सच्चा संयम लाना होगा और इस प्रकार उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों के बीच सौहार्द्र पर बल दिया। इसी तरह आख्रथक स्तर पर भारतीयों को स्वावलंबी बनना सीखना होगा- ऐसा करके उन्होंने समुद्रपार से आयतित मिल में बने वस्त्रो के स्थान पर खादी पहनने  पर जोर डाला।
3- नमक सत्याग्रह
नजदीक से एक नजर
असहयोग आंदोलन समाप्त होने के कई वर्ष बाद तक महात्मा गाँधी ने अपने को समाज सुधार कार्यो पर केंद्रित रखा। 1928 में उन्होंने पुन:राजनीति में प्रवेश करने की सोची। उस वर्ष सभी श्वेत सदस्यों वाले साईमन कमीशन, जो कि उपनिवेश की स्थितियों की जाँच-पड़ताल के लिए इंग्लैंड से भेजा गया था, के विरुद्ध अखिल भारतीय अभियान चलाया जा रहा था। गाँधी जी ने स्वयं इस आंदोलन में भाग नहीं लिया था पर उन्होंने इस आंदोलन को अपना आशीर्वाद दिया था तथा इसी वर्ष बारदोली में होने वाले एक किसान सत्याग्रह के साथ भी उन्होंने ऐसा किया था। 1929 में दिसंबर के अंत में कांग्रेस ने अपना वार्षिक अधिवेशन लाहौर शहर में किया। यह अधिवेशन दो दृष्टियों से महत्वपूर्ण था : जवाहरलाल नेहरू का अध्यक्ष के रूप में चुनाव जो युवा पीढ़ी को नेतृत्व की छड़ी सौंपने का प्रतीक था और ‘पूर्ण स्वराज’ अथवा पूर्ण स्वतंत्रता की उद्घोषणा।
अब राजनीति की गति एक बार फ़िर बढ़ गई थी। 26 फ़रवरी 1930 को विभिन्न स्थानों पर राष्ट्रीय ध्वज फ़हराकर और देशभक्ति के गीत गाकर ‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाया गया। गाँधी जी ने स्वयं सुस्पष्ट निर्देश देकर बताया कि इस दिन को कैसे मनाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि ;स्वतंत्रता की उद्घोषणा सभी गाँवों और सभी शहरों यहाँ तक कि— अच्छा होगा। अगर सभी जगहों पर एक ही समय में संगोष्ठियाँ हों तो अच्छा होगा। गाँधी जी ने सुझाव दिया कि नगाड़े पीटकर पारंपरिक तीरके से संगोष्ठी के समय की घोषणा की जाए। राष्ट्रीय ध्वज को फ़हराए जाने से समारोहों की शुरुआत होगी। दिन का बाकी हिस्सा किसी रचनात्मक कार्य में चाहे वह सूत कताई हो अथवा ‘अछूतों’ की सेवा अथवा हिंदुओं व मुसलमानों का पुनर्मिलन अथवा निषिद्ध कार्य अथवा ये सभी एक साथ करने में व्यतीत होगा और यह असंभव नहीं है। इसमें भाग लेने वाले लोग दृढ़तापूर्वक यह प्रतिज्ञा लेंगे कि अन्य लोगों की तरह भारतीय लोगों को भी स्वतंत्रता और अपने कठिन परिश्रम के फ़ल का आनंद लेने का अहरणीय अधिकार है और यह कि यदि कोई भी सरकार लोगों को इन अधिकरों से वंचित रखती है या उनका दमन करती है तो लोगों को इन्हें बदलने अथवा समाप्त करने का भी अधिकार है।
3-1 दाण्डी
‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाए जाने के तुरंत बाद महात्मा गाँधी ने घोषणा की कि वे ब्रिटिश भारत के सर्वाध्कि घृणित कानूनों में से एक, जिसने नमक के उत्पादन और विक्रय पर राज्य को एकाधिकार दे दिया है, को तोड़ने के लिए एक यात्रा का नेतृत्व करेंगे। नमक एकाधिकार के जिस मुद्दे का उन्होंने चयन किया था वह गाँधी जी की कुशल समझदारी का एक अन्य उदाहरण था। प्रत्येक भारतीय घर में नमक का प्रयोग अपरिहार्य था लेकिन इसके बावजूद उन्हें घरेलू प्रयोग के लिए भी नमक बनाने से रोका गया और इस तरह उन्हें दुकानों से उँफचे दाम पर नमक खरीदने के लिए बाध्य किया गया। नमक पर राज्य का एकाध्पित्य बहुत अलोकप्रिय था। इसी को निशाना बनाते हुए गाँधी जी अंग्रेजी शासन के खिलाफ़ व्यापक असंतोष को संघटित करने की सोच रहे थे।
अधिकांश भारतीयों को गाँधी जी की इस चुनौती का महत्व समझ में आ गया था किन्तु अंग्रेजी राज को नहीं। हालाँकि गाँधी जी ने अपनी ‘नमक यात्रा’ की पूर्व सूचना वाइसराय लार्ड इर्विन को दे दी थी किन्तु इर्विन उनकी इस कार्रवाही के महत्व को न समझ सके। 12 मार्च 1930 को गाँधी जी ने साबरमती में अपने आश्रम से समुद्र की ओर चलना शुरू किया। तीन हपतों बाद वे अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचे। वहाँ उन्होने मुट्‌ठी भर नमक बनाकर स्वयं को कानून की निगाह में अपराधी बना दिया। इसी बीच देश के अन्य भागों में समान्तर नमक यात्राएँ अयोजित की गई।
असहयोग आन्दोलन की तरह अधिकॄत रूप से स्वीकॄत राष्ट्रीय अभियान के अलावा भी विरोध की असंख्य धाराएँ थीं। देश के विशाल भाग में किसानों ने दमनकारी औपनिवेशिक वन कानूनों का उल्लंघन किया जिसके कारण वे और उनके मवेशी उन्हीं जंगलों में नहीं जा सकते थे जहाँ एक जमाने में वे बेरोकटोक घूमते थे। कुछ कस्बों में पैफक्ट्री कामगार हड़ताल पर चले गए, वकीलों ने ब्रिटिश अदालतों का बहिष्कार कर दिया और विद्यार्थियों ने सरकारी शिक्षा संस्थानों में पढ़ने से इनकार कर दिया। 1920-22 की तरह इस बार भी गाँधी जी के आह्‌वान ने तमाम भारतीय वर्गों को औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध अपना असंतोष व्यक्त करने के लिए प्रेरित किया। जवाब में सरकार असंतुष्टों को हिरासत में लेने लगी। नमक सत्याग्रह के सिलसिले में लगभग 60,000 लोगों को गिरफ़्तार किया गया। गिरफ़्तार होने वालों में गाँधी जी भी थे। समुद्र तट की ओर गाँधी जी की यात्रा की प्रगति का पता उनकी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए तैनात पुलिस अफ़सरों द्वारा भेजी गई गोपनीय रिपोट से लगाया जा सकता है। इन रिपोटो में रास्ते के गाँवों में गाँधी जी द्वारा दिए गए भाषण भी मिलते हैं जिनमें उन्होंने स्थानीय अधिकारियों से आह्‌वान किया था कि वे सरकारी नौकरियाँ छोड़कर स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल हो जाएँ।
वसना नामक गाँव में गाँधी जी ने ऊँची जाति वालों को संबोधित करते हुए कहा था कि यदि आप स्वराज के हक में आवाज उठाते हैं तो आपको अछूतों की सेवा करनी पड़ेगी। सिर्फ़ नमक कर या अन्य करों के खत्म हो जाने से आपको स्वराज नहीं मिल जाएगा। स्वराज के लिए आपको अपनी उन गल्तियों का प्रायश्चित करना होगा जो आपने अछूतों के साथ की हैं। स्वराज के लिए हिंदू, मुसलमान, पारसी और सिख, सबको एकजुट होना पडेगा। ये स्वराज की सीढ़ियाँ हैं। फ्पुलिस के जासूसों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि गाँधी जी की सभाओं में तमाम जातियों के औरत-मर्द शामिल हो रहे हैं। उनका कहना था कि हजारों वॉलंटियर राष्ट्रवादी उद्देश्य के लिए सामने आ रहे हैं। उनमें से बहुत सारे ऐसे सरकारी अफ़सर थे जिन्होंने औपनिवेशिक शासन में अपने पदों से इस्तीफ़ा दे दिए थे। सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में जिला पुलिस सुपरिंटेंडेंट ;पुलिस अधीक्षक ने लिखा था कि फ्श्री गाँधी शांत और निश्चिंत दिखाई दिए। वे जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं, उनकी ताकत बढ़ती जा रही है।
नमक यात्रा की प्रगति को एक और बात से भी समझा जा सकता है। अमेरिकी समाचार पत्रिका टाइम को गाँधी जी की कदकाठी पर हँसी आती थी। पत्रिका ने उनके तकुए जैसे शरीरय् और मकड़ी जैसे पैरो का खूब मजाक उड़ाया था। इस यात्रा के बारे में अपनी पहली रिपोर्ट में ही टाइम ने नमक यात्रा के मंजिल तक पहुँचने पर अपनी गहरी शंका व्यक्त कर दी थी। उसने दावा किया कि दूसरे दिन पैदल चलने के बाद गाँधी जी जमीन पर पसर गए थे। पत्रिका को इस बात पर विश्वास नहीं था कि इस मरियल साधु के शरीर में और आगे जाने की ताकत बची है। लेकिन एक रात में ही पत्रिका की सोच बदल गई। टाइम ने लिखा कि इस यात्रा को जो भारी जनसमर्थन मिल रहा है उसने अंग्रेज शासकों को  बेचैन कर दिया है। अब वे भी गाँधी जी को ऐसा साधु और जननेता कह कर सलामी देने लगे हैं जो ईसाई धिर्मावलंबियों के खिलाफ़ ईसाई तरीकों का ही हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है।
3-2 संवाद
नमक यात्रा कम से कम तीन कारणों से उल्लेखनीय थी। पहला, यही वह घटना थी जिसके चलते महात्मा गाँधी दुनिया की नजर में आए। इस यात्रा को यूरोप और अमेरिकी प्रेस ने व्यापक कवरेज दी। दूसरे, यह पहली राष्ट्रवादी गतिविधि थी जिसमें औरतों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। समाजवादी कार्यकर्ता कमलादेवी चटोपाध्याय ने गाँधी जी को समझाया कि वे अपने आंदोलनों को पुरुषों तक ही सीमित न रखें। कमलादेवी खुद उन असंख्य औरतों में से एक थीं जिन्होंने नमक या शराब कानूनों का उल्लंघन करते हुए सामूहिक गिरफ़तारी दी थी। तीसरा और संभवत: सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा।
नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा।इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने लंदन में गोल मेज सम्मेलनों का आयोजन शुरू किया। पहला गोल मेज सम्मेलन नवम्बर 1930 में आयोजित किया गया जिसमें देश के प्रमुख नेता शामिल नहीं हुए। इसी कारण अंतत: यह बैठक निरर्थक साबित हुई। जनवरी 1931 में गाँधी जी को जेल से रिहा किया गया। अगले ही महीने वायसराय के साथ उनकी कई लंबी बैठके हुईं। इन्हीं बैठकों के बाद गांधी-इर्विन समझौते पर सहमति बनी जिसकी शर्तो में सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेना, सारे कैदियों की रिहाई और तटीय इलाकों में नमक उत्पादन की अनुमति देना शामिल था। रैडिकल राष्ट्रवादियों ने इस समझौते की आलोचना की क्योंकि गाँधी जी वायसराय से भारतीयों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का आश्वासन हासिल नहीं कर पाए थे। गाँधी जी को इस संभावित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए केवल वार्ताओं का आश्वासन मिला था।
दूसरा गोल मेज सम्मेलन 1931 के आखिर में लंदन में आयोजित हुआ। उसमें गाँधी जी कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे। गाँधी जी का कहना था कि उनकी पार्टी पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती है। इस दावे को तीन पार्टियों ने चुनौती दी। मुस्लिम लीग का कहना था कि वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हित में काम करती है। राजे-रजवाड़ों का दावा था कि कांग्रेस का उनके नियंत्रण वाले भूभाग पर कोई अधिकार नहीं है। तीसरी चुनौती तेज-तर्रार वकील और विचारक बीआर- अंबेडकर की तरफ़ से थी जिनका कहना था कि गाँधी जी और कांग्रेस पार्टी निचली जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। लंदन में हुआ यह सम्मेलन किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका इसलिए गाँधी जी को खाली हाथ लौटना पड़ा। भारत लौटने पर उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया।
नए वायसराय लॉर्ड विलिंग्डन को गाँधी जी से बिलकुल हमदर्दी नहीं थी। अपनी बहन को लिखे एक निजी खत में विलिंग्डन ने लिखा था कि अगर गाँधी न होता तो यह दुनिया वाकई बहुत खूबसूरत होती। वह जो भी कदम उठाता है उसे ईश्वर की प्रेरणा का परिणाम कहता है लेकिन असल में उसके पीछे एक गहरी राजनीतिक चाल होती है। देखता हूँ कि अमेरिकी प्रेस उसको गज़ब का आदमी बताती है—। लेकिन सच यह है कि हम निहायत अव्यावहारिक, रहस्यवादी और अंधिविश्वासी जनता के बीच रह रहे हैं जो गाँधी को भगवान मान बैठी है,—
बहरहाल, 1935 में नए गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट में सीमित प्रातिनिधिक शासन व्यवस्था का आश्वासन व्यक्त किया गया। दो साल बाद सीमित मताधिकार के आधिकार पर हुए चुनावों में कांग्रेस को जबर्दस्त सफ़लता मिली। 11 में से 8 प्रांतों में कांग्रेस के प्रतिनिधि सत्ता में आए जो ब्रिटिश गवर्नर की देखरेख में काम करते थे। कांग्रेस मंत्रिमंडलों के सत्ता में आने के दो साल बाद, सितंबर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू, दोनों ही हिटलर व नात्सियों के कड़े आलोचक थे। तदनुरूप, उन्होंने फ़ैसला लिया कि अगर अंग्रेज युद्ध समाप्त होने के बाद भारत को स्वतंत्रता देने पर राजी हों तो कांग्रेस उनके युद्द्ध प्रयासों में सहायता दे सकती है। सरकार ने उनका प्रस्ताव खारिज कर दिया। इसके विरोध में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने अक्टूबर 1939 में इस्तीफ़ा दे दिया।
युद्ध समाप्त
मार्च 1940 में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के नाम से एक पृथक राष्ट्र की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया और उसे अपना लक्ष्य घोषित कर दिया। अब राजनीतिक भूदृश्य का्फ़ी जटिल हो गया था : अब यह संघर्ष भारतीय बनाम ब्रिटिश नहीं रह गया था। अब यह कांग्रेस, मुस्लिम लीग और ब्रिटिश शासन, तीन धुरियों के बीच का संघर्ष था। इसी समय ब्रिटेन में एक सर्वदलीय सरकार सत्ता में थी जिसमें शामिल लेबर पार्टी के सदस्य भारतीय आकांक्षाओं के प्रति हमदर्दी का रवैया रखते थे लेकिन सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल कट्‌टर साम्राज्यवादी थे। उनका कहना था कि उन्हें सम्राट का सर्वोच्च मंत्री इसलिए नहीं नियुक्त किया गया है कि वह ब्रिटिश साम्राज्य को टुकड़े-टुकड़े कर दें।
1942 के वसंत में चर्चिल ने गाँधी जी और कांग्रेस के साथ समझौते का रास्ता निकालने के लिए अपने एक मंत्री सर स्टेप्फ़ार्ड क्रिप्स को भारत भेजा। क्रिप्स के साथ वार्ता में कांग्रेस ने इस बात पर जोर दिया कि अगर धुरी शक्तियों से भारत की रक्षा के लिए ब्रिटिश शासन कांग्रेस का समर्थन चाहता है तो वायसराय को सबसे पहले अपनी कार्यकारी परिषद् में किसी भारतीय को एक रक्षा सदस्य के रूप में नियुक्त करना चाहिए। इसी बात पर वार्ता टूट गई।
4- भारत छोड़ो
क्रिप्स मिशन की विफ़लता के बाद महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ अपना तीसरा बड़ा आंदोलन छेड़ने का फ़ैसला लिया। अगस्त 1942 में शुरू हुए इस आंदोलन को अंग्रेजों भारत छोड़ो का नाम दिया गया था। हालांकि गाँधी जी को फ़ौरन गिरफ़्तार कर लिया गया था लेकिन देश भर के युवा कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फ़ोड़ की कार्रवाइयों के जरिए आंदोलन चलाते रहे। कांग्रेस में जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी सदस्य भूमिगत प्रतिरोधि गतिविधियों में सबसे ज्यादा सक्रिय थे। पश्चिम में सतारा और पूर्व में मेदिनीपुर जैसे कई जिलों में स्वतंत्र सरकार ;प्रतिसरकार की स्थापना कर दी गई थी। अंग्रेजों ने आंदोलन के प्रति काफ़ी सख्त रवैया अपनाया फ़िर भी इस विद्रोह को दबाने में सरकार को साल भर से ज्यादा समय लग गया।
भारत छोड़ो आंदोलन सही मायने में एक जनांदोलन था जिसमें लाखों आम हिंदुस्तानी शामिल थे। इस आंदोलन ने युवाओं को बड़ी संख्या में अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने अपने कॉलेज छोड़कर जेल का रास्ता अपनाया। जिस दौरान कांग्रेस के नेता जेल में थे उसी समय जिन्ना तथा मुस्लिम लीग के उनके साथी अपना प्रभाव क्षेत्र फ़ैलाने में लगे थे। इन्हीं सालों में लीग को पंजाब और सिंध में अपनी पहचान बनाने का मौका मिला जहाँ अभी तक उसका कोई खास वजूद नहीं था।
जून 1944 में जब विश्व युद्ध समाप्ति की ओर था तो गाँधी जी को रिहा कर दिया गया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने कांग्रेस और लीग के बीच फ़ासले को पाटने के लिए जिन्ना के साथ कई बार बात की। 1945 में ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बनी। यह सरकार भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में थी। उसी समय वायसराय लॉर्ड वावेल ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के बीच कई बैठकों का आयोजन किया।
1946 की शुरुआत में प्रांतीय विधान मंडलों के लिए नए सिरे से चुनाव कराए गए। सामान्य श्रेणी में कांग्रेस को भारी सफ़लता मिली। मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों पर मुस्लिम लीग को भारी बहुमत प्राप्त हुआ। राजनीतिक ध्रुवीकरण पूरा हो चुका था। 1946 की गर्मियों में कैबिनेट मिशन भारत आया। इस मिशन ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग को एक ऐसी संघीय व्यवस्था पर राज़ी करने का प्रयास किया जिसमें भारत के भीतर विभिन्न प्रांतों को सीमित स्वायत्तता दी जा सकती थी। कैबिनेट मिशन का यह प्रयास भी विफ़ल रहा। वार्ता टूट जाने के बाद जिन्ना ने पाकिस्तान की स्थापना के लिए लीग की माँग के समर्थन में एक प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस का आह्‌वान किया। इसके लिए 16 अगस्त, 1946 का दिन तय किया गया था। उसी दिन कलकत्ता में खूनी संघर्ष शुरू हो गया। यह हिंसा कलकत्ता से शुरू होकर ग्रामीण बंगाल, बिहार और संयुक्त प्रांत व पंजाब तक फ़ैल गई। कुछ स्थानों पर मुसलमानों को तो कुछ अन्य स्थानों पर हिंदुओं को निशाना बनाया गया।
फ़रवरी 1947 में वावेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को वायसराय नियुक्त किया गया। उन्होंने वार्ताओं के एक अंतिम दौर का आह्‌वान किया। जब सुलह के लिए उनका यह प्रयास भी विफ़ल हो गया तो उन्होंने ऐलान कर दिया कि ब्रिटिश भारत को स्वतंत्रता दे दी जाएगी लेकिन उसका विभाजन भी होगा। औपचारिक सत्ता हस्तांतरण के लिए 15 अगस्त का दिन नियत किया गया। उस दिन भारत के विभिन्न भागों में लोगों ने जमकर खुशियाँ मनायीं। दिल्ली में जब संविधान सभा के अध्यक्ष ने मोहनदास करमचंद गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि देते हुए संविधान सभा की बैठक शुरू की तो बहुत देर तक करतल ध्वनि होती रही। असेम्बली के बाहर भीड़ महात्मा गाँधी की जय के नारे लगा रही थी।
5- आखिरी, बहादुराना दिन
15 अगस्त 1947 को राजधानी में हो रहे उत्सवों में महात्मा गाँधी नहीं थे। उस समय वे कलकत्ता में थे लेकिन उन्होंने वहाँ भी न तो किसी कार्यक्रम में हिस्सा लिया, न ही कहीं झंडा फ़हराया। गाँधी जी उस दिन 24 घंटे के उपवास पर थे। उन्होंने इतने दिन तक जिस स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था वह एक अकल्पनीय कीमत पर उन्हें मिली थी। उनका राष्ट्र विभाजित था हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे की गर्दन पर सवार थे। उनके जीवनी लेखक डी-जी- तेंदुलकर ने लिखा है कि सितंबर और अक्तूबर के दौरान गाँधी जी फ्पीड़ितों को सांत्वना देते हुए अस्पतालों और शरणार्थी शिविरों के चक्कर लगा रहे थे। उन्होंने सिखों, हिंदुओं और मुसलमानों से आह्‌वान किया कि वे अतीत को भुला कर अपनी पीड़ा पर ध्यान देने की बजाय एक-दूसरे के प्रति भाईचारे का हाथ बढ़ाने तथा शांति से रहने का संकल्प लें।
गाँधी जी और नेहरू के आग्रह पर कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर एक प्रस्ताव पारित कर दिया। कांग्रेस ने दो राष्ट्र सिद्धान्त को कभी स्वीकार नहीं किया था। जब उसे अपनी इच्छा के विरुद्ध बँटवारे पर मंजूरी देनी पड़ी तो भी उसका दृढ़ विश्वास था कि भारत बहुत सारे धर्मों और बहुत सारी नस्लों का देश है और उसे ऐसे ही बनाए रखा जाना चाहिए। पाकिस्तान में हालात जो रहें, भारत एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा जहाँ सभी नागरिकों को पूर्ण अधिकार प्राप्त होंगे तथा धर्म के आधार पर भेदभाव के बिना सभी को राज्य की ओर से संरक्षण का अधिकार होगा। कांग्रेस ने आश्वासन दिया कि वह अल्पसंख्यकों के नागरिक अधिकारों के किसी भी अतिक्रमण के विरुद्ध हर मुमकिन रक्षा करेगी।
बहुत सारे विद्वानों ने स्वतंत्रता बाद के महीनों को गाँधी जी के जीवन का श्रेष्ठतम क्षण कहा है। बंगाल में शांति स्थापना के लिए अभियान चलाने के बाद गाँधी जी दिल्ली आ गए। यहाँ से वे दंगाग्रस्त पंजाब के जिलों में जाना चाहते थे। लेकिन राजधानी में ही शरणार्थियों की आपत्तियों के कारण उनकी सभाएँ अस्त-व्यस्त होने लगीं। बहुत सारे शरणार्थियों को उनकी सभाओं में कुरान की आयतों को पढ़ने की प्रथा पर आपत्ति थी। कई लोग इस बात पर नारे लगाने लगते थे कि गाँधी जी उन हिंदुओं और सिखों की पीड़ा के बारे में बात क्यों नहीं करते जो अभी भी पाकिस्तान में फ़ँसे हुए हैं। डी-जी- तेंदुलकर के शब्दों में, गाँधी जी पाकिस्तान में भी अल्पसंख्यक समुदाय के कष्टों के बारे में समान रूप से चिंतित थे। उन्हें राहत प्रदान करने के लिए वे वहाँ भी जाना चाहते थे। लेकिन वहाँ वे किस मुँह से जा सकते थे जबकि दिल्ली में ही वे मुसलमानों को पूरी सुरक्षा का आश्वासन नहीं दे पा रहे थे।
20 जनवरी को गाँधी जी पर हमला हुआ लेकिन वे अविचलित अपना काम करते रहे। 26 तारीख को उन्होंने अपनी प्रार्थना सभा में इस बात का जिक्र किया कि बीते सालों में इस दिन ;26 जनवरी को किस तरह स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता था। अब स्वतंत्राता मिल चुकी थी, लेकिन उस के शुरुआती महीने गहरे तौर पर मोहभंग वाले साबित हुए। फ़िर भी उनको विश्वास था कि बुरी घड़ी बीत चुकी है, भारत के लोग अब सभी वर्गों और धर्मों की समानता के लिए काम करेंगे तथा अल्पसंख्यक समुदाय पर बहुल समुदाय का वर्चस्व व श्रेष्ठता स्थापित नहीं होगी भले ही अल्पसंख्यक समुदाय संख्या या प्रभाव की दृष्टि से कितना भी छोटा क्यों न हो। उन्होंने यह आशा भी जतायी कि यद्यपि भौगोलिक और राजनीतिक रूप से भारत दो भागों में बँट चुका है लेकिन हॄदय में हम सभी सदैव मित्र एवं भाई रहेंगे, एक-दूसरे को मदद व सम्मान देते रहेंगे और शेष विश्व के लिए हम एक ही होंगे।
गाँधी जी ने स्वतंत्र और अखंड भारत के लिए जीवन भर युद्ध लड़ा। फ़िर भी, जब देश विभाजित हो गया तो उनकी यही इच्छा थी कि दोनों देश एक-दूसरे के साथ सम्मान और दोस्ती के संबंधो बनाए रखें। बहुत सारे भारतीयों को उनका यह सहॄदय आचरण पसंद नहीं था। 30 जनवरी की शाम को गाँधी जी की दैनिक प्रार्थना सभा में एक युवक ने उनको गोली मारकर मौत की नींद सुला दिया। उनके हत्यारे ने कुछ समय बाद आत्मसमर्पण कर दिया। वह नाथूराम गोडसे नाम का ब्राह्‌मण था। पुणे का रहने वाला गोडसे एक चरमपंथी हिंदुत्ववादी अखबार का संपादक था। वह गाँधी जी को मुसलमानों का खुशामदी कहकर उनकी निंदा करता था।  गाँधी जी की मृत्यु से चारों ओर गहरे शोक की लहर दौड़ गई। भारत भर के राजनीतिक फलक पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी गई। जॉर्ज ऑरवेल तथा एलबर्ट आइंस्टीन जैसे विख्यात गैर-भारतीयों ने भी उनकी मृत्यु पर हॄदयस्पर्शी शब्दों में शोक संदेश भेजे।
एक ज़माने में उनकी कद-काठी और कथित रूप से बेतुके विचारों के लिए गाँधी जी का उपहास करने वाली टाइम पत्रिका ने उनके बलिदान की तुलना अब्राह्‌म लिंकन के बलिदान से की। पत्रिका ने कहा कि एक धर्मांध अमेरिकी ने लिंकन को मार दिया था क्योंकि उन्हें नस्ल या रंग से परे मानवमात्र की समानता में विश्वास था और दूसरी तरपफ एक धर्मांध हिंदू ने गाँधी जी की जीवन लीला समाप्त कर दी क्योंकि गाँधी जी ऐसे कठिन क्षणों में भी दोस्ती और भाईचारे में विश्वास रखते थे, विभिन्न धर्मों को मानने वालों के बीच दोस्ती की अनिवार्यता पर बल देते थे। टाइम ने लिखा, दुनिया जानती थी कि उसने उनकी ;गाँधी जी की मृत्यु पर वैसे ही मौन धारण कर लिया है जिस प्रकार उसने लिंकन की मृत्यु पर किया था, और यह समझना एक मायने में बहुत गहरा और बहुत साधारण काम है।