Friday 2 December 2016

गाँधी जी के जीवन का श्रेष्ठतम क्षण

15 अगस्त 1947 को राजधानी में हो रहे उत्सवों में महात्मा गाँधी नहीं थे। उस समय वे कलकत्ता में थे लेकिन उन्होंने वहाँ भी न तो किसी कार्यक्रम में हिस्सा लिया, न ही कहीं झंडा फ़हराया। गाँधी जी उस दिन 24 घंटे के उपवास पर थे। उन्होंने इतने दिन तक जिस स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था वह एक अकल्पनीय कीमत पर उन्हें मिली थी। उनका राष्ट्र विभाजित था हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे की गर्दन पर सवार थे। उनके जीवनी लेखक डी-जी- तेंदुलकर ने लिखा है कि सितंबर और अक्तूबर के दौरान गाँधी जी फ्पीड़ितों को सांत्वना देते हुए अस्पतालों और शरणार्थी शिविरों के चक्कर लगा रहे थे। उन्होंने सिखों, हिंदुओं और मुसलमानों से आह्‌वान किया कि वे अतीत को भुला कर अपनी पीड़ा पर ध्यान देने की बजाय एक-दूसरे के प्रति भाईचारे का हाथ बढ़ाने तथा शांति से रहने का संकल्प लें।
गाँधी जी और नेहरू के आग्रह पर कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर एक प्रस्ताव पारित कर दिया। कांग्रेस ने दो राष्ट्र सिद्धान्त को कभी स्वीकार नहीं किया था। जब उसे अपनी इच्छा के विरुद्ध बँटवारे पर मंजूरी देनी पड़ी तो भी उसका दृढ़ विश्वास था कि भारत बहुत सारे धर्मों और बहुत सारी नस्लों का देश है और उसे ऐसे ही बनाए रखा जाना चाहिए। पाकिस्तान में हालात जो रहें, भारत एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा जहाँ सभी नागरिकों को पूर्ण अधिकार प्राप्त होंगे तथा धर्म के आधार पर भेदभाव के बिना सभी को राज्य की ओर से संरक्षण का अधिकार होगा। कांग्रेस ने आश्वासन दिया कि वह अल्पसंख्यकों के नागरिक अधिकारों के किसी भी अतिक्रमण के विरुद्ध हर मुमकिन रक्षा करेगी।
बहुत सारे विद्वानों ने स्वतंत्रता बाद के महीनों को गाँधी जी के जीवन का श्रेष्ठतम क्षण कहा है। बंगाल में शांति स्थापना के लिए अभियान चलाने के बाद गाँधी जी दिल्ली आ गए। यहाँ से वे दंगाग्रस्त पंजाब के जिलों में जाना चाहते थे। लेकिन राजधानी में ही शरणार्थियों की आपत्तियों के कारण उनकी सभाएँ अस्त-व्यस्त होने लगीं। बहुत सारे शरणार्थियों को उनकी सभाओं में कुरान की आयतों को पढ़ने की प्रथा पर आपत्ति थी। कई लोग इस बात पर नारे लगाने लगते थे कि गाँधी जी उन हिंदुओं और सिखों की पीड़ा के बारे में बात क्यों नहीं करते जो अभी भी पाकिस्तान में फ़ँसे हुए हैं। डी-जी- तेंदुलकर के शब्दों में, गाँधी जी पाकिस्तान में भी अल्पसंख्यक समुदाय के कष्टों के बारे में समान रूप से चिंतित थे। उन्हें राहत प्रदान करने के लिए वे वहाँ भी जाना चाहते थे। लेकिन वहाँ वे किस मुँह से जा सकते थे जबकि दिल्ली में ही वे मुसलमानों को पूरी सुरक्षा का आश्वासन नहीं दे पा रहे थे।
20 जनवरी को गाँधी जी पर हमला हुआ लेकिन वे अविचलित अपना काम करते रहे। 26 तारीख को उन्होंने अपनी प्रार्थना सभा में इस बात का जिक्र किया कि बीते सालों में इस दिन ;26 जनवरी को किस तरह स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता था। अब स्वतंत्राता मिल चुकी थी, लेकिन उस के शुरुआती महीने गहरे तौर पर मोहभंग वाले साबित हुए। फ़िर भी उनको विश्वास था कि बुरी घड़ी बीत चुकी है, भारत के लोग अब सभी वर्गों और धर्मों की समानता के लिए काम करेंगे तथा अल्पसंख्यक समुदाय पर बहुल समुदाय का वर्चस्व व श्रेष्ठता स्थापित नहीं होगी भले ही अल्पसंख्यक समुदाय संख्या या प्रभाव की दृष्टि से कितना भी छोटा क्यों न हो। उन्होंने यह आशा भी जतायी कि यद्यपि भौगोलिक और राजनीतिक रूप से भारत दो भागों में बँट चुका है लेकिन हॄदय में हम सभी सदैव मित्र एवं भाई रहेंगे, एक-दूसरे को मदद व सम्मान देते रहेंगे और शेष विश्व के लिए हम एक ही होंगे।
गाँधी जी ने स्वतंत्र और अखंड भारत के लिए जीवन भर युद्ध लड़ा। फ़िर भी, जब देश विभाजित हो गया तो उनकी यही इच्छा थी कि दोनों देश एक-दूसरे के साथ सम्मान और दोस्ती के संबंधो बनाए रखें। बहुत सारे भारतीयों को उनका यह सहॄदय आचरण पसंद नहीं था। 30 जनवरी की शाम को गाँधी जी की दैनिक प्रार्थना सभा में एक युवक ने उनको गोली मारकर मौत की नींद सुला दिया। उनके हत्यारे ने कुछ समय बाद आत्मसमर्पण कर दिया। वह नाथूराम गोडसे नाम का ब्राह्‌मण था। पुणे का रहने वाला गोडसे एक चरमपंथी हिंदुत्ववादी अखबार का संपादक था। वह गाँधी जी को मुसलमानों का खुशामदी कहकर उनकी निंदा करता था।  गाँधी जी की मृत्यु से चारों ओर गहरे शोक की लहर दौड़ गई। भारत भर के राजनीतिक फलक पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी गई। जॉर्ज ऑरवेल तथा एलबर्ट आइंस्टीन जैसे विख्यात गैर-भारतीयों ने भी उनकी मृत्यु पर हॄदयस्पर्शी शब्दों में शोक संदेश भेजे।
एक ज़माने में उनकी कद-काठी और कथित रूप से बेतुके विचारों के लिए गाँधी जी का उपहास करने वाली टाइम पत्रिका ने उनके बलिदान की तुलना अब्राह्‌म लिंकन के बलिदान से की। पत्रिका ने कहा कि एक धर्मांध अमेरिकी ने लिंकन को मार दिया था क्योंकि उन्हें नस्ल या रंग से परे मानवमात्र की समानता में विश्वास था और दूसरी तरपफ एक धर्मांध हिंदू ने गाँधी जी की जीवन लीला समाप्त कर दी क्योंकि गाँधी जी ऐसे कठिन क्षणों में भी दोस्ती और भाईचारे में विश्वास रखते थे, विभिन्न धर्मों को मानने वालों के बीच दोस्ती की अनिवार्यता पर बल देते थे। टाइम ने लिखा, दुनिया जानती थी कि उसने उनकी ;गाँधी जी की मृत्यु पर वैसे ही मौन धारण कर लिया है जिस प्रकार उसने लिंकन की मृत्यु पर किया था, और यह समझना एक मायने में बहुत गहरा और बहुत साधारण काम है।

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